शनिवार, 14 अगस्त 2010

जुदाई में उनके फूलों का सिसकना

                                  ग़ज़ल   
जुदाई में उनके फूलों   का सिसकना                                                                   
क्या बताऊँ अपने दिल का तडपना


बात   मौसम  की यूँ  पूछा     न करें
वो  हैं    तो   हर    मौसम  है  सुहाना


सुबह     होती    है     परिंदे   गाते हैं
जब   यहाँ    होता है   उनका    आना


मचलती हैं वो जब प्यासी  नदी सा
देखा   है   तब   बादलों      का   बरसना


नाचीज को खबर है उनके आने का
पर  मिलता  नहीं   मिलने  का बहाना







ये रस्ते चौबारे कहें कि तुम     चले आओ
ये दर ओ दीवारें कहें कि तुम चले आओ 


आसमां     निहारूं,      हवा     से    बात करूँ
इस   पागल   को    देखने    तुम चले आओ 


इक    तस्वीर   तेरी     आज     भी बनाई है
उसमें    रंग     दहकें    जो तुम    चले आओ


ख्वाब में  ही   सही   रोज  मिलता  हूँ  तुमसे
ख्वाब   ऐसा  ही    देखने   तुम     चले   आओ



तेरी यादों  के सिवा  कुछ भी याद नहीं
फर्क नहीं, तुम खुद कि ख्वाब में आओ







तनहा तनहा जिन्दगी तमाम हुई
जो     बरबादियों     के    नाम    हुई

सफ़र के बीच   मिली जुदाई   हमें
ढूंढते    इश्क   यूँ    ही     शाम   हुई

पनपा  था    इश्क    जिस    गली    में
अब वो गली  खामोशी के नाम हुई

पता जिसके नाम, लिखता था शहर 
दास्ताँ   ही    उसकी,    गुमनाम    हुई

नाचीज न  जी सका न मर सका
तन्हाई    जिन्दगी  में     आम  हुई








सन्नाटे में दिल बहुत बोलता है
खजाना यादों का यूँ उमड़ता  है

लगता है अभी अभी वो मिले थे
पंख लगा के      ये वक्त  उड़ता  है

उग आए कांटे जहाँ फूल खिलते थे
फिर भी इक दीवाना वहां रहता है

इश्क   करता  था     वो  चांदनी   से
अब पत्थरों को बावला चूमता है

उसे मिटने का कोई गम ही नहीं
कब्र   में   भी   नाचीज जी लेता है







उसकी जाँ से किसने  जां छीन  ली
फूलों से   किसने    महक छीन   ली

यहाँ जो गाते थे, कितना गुनगुनाते थे
उन   परिंदों   से   किसने जुबां   छीन ली

चाँद को     किसने  यूँ  बेनूर किया
किसने पानी से ज़िंदगी छीन ली

कैसे   बिखरे ये     रंग  तितलियों    के 
किसने   मुहब्बत से    गज़ल छीन ली












वो चाँद  मेरा रोता होगा कहीं 
दुपट्टे में मुह छिपाए तो नहीं

उसकी   रातें    काटे   न कटी   होंगी
आहटों पे वो होगी चौंकी तो नहीं

उसने  पहाड़ों  से    कहीं    पूछा होगा
इस बावले बादल का पता तो नहीं

भीगी सी चिट्ठी उसने लिखी होगी
बना के    अश्कों की स्याही तो नहीं

वो   आएँग  यहाँ ,  मैं   रहूँगा  ही नहीं
चाँद औ' चकोर कभी मिलते तो नहीं

बुधवार, 11 अगस्त 2010

मेरी वसुधा !



मेरी वसुधा !
तुम्हारे आग्रह पर
तोड़ता हूँ मैं मौन अपना
स्वाभाव सा जो हो गया था
मौन अपना-
कायरता होगी
तटस्थ रहना
अतः तोड़ता हूँ
मौन अपना-
शोर मचाती
मानव की
यह नव उत्पन्न जाति
हैं उगी बंजरों पर
बबूल की भांति
सोखती/ सत्य शब्दों की पांति
स्वार्थ का ताना-बाना रचती
कुतर्क के जाल बुनती 
मछलियाँ  फांसती
बोटी-बोटी नोचती -
सुनाऊंगा उसे
अपना निर्भय  स्वर
दहकते बोल 
धधकते अक्षर 
देखेगी पृथ्वी 
एक और तांडव 
फिर से बरसेंगे  झर-झर
शिव के अक्षर 
सत्य के अक्षर 
शाश्वत सुन्दर अक्षर

मेरी वसुधा ! 
देख रहा हूँ मैं
नव मानव की  ब्याधि
उठती हिंसा की आंधी-
हिंसा हिंसा से नहीं रुकेगी 
नव मानव को चाहिए औषधि
औषधि प्रेम की
स्नेहिल स्पर्श की-
पर मानव में
प्रेम का स्वर समझेगा कौन? 
सुनेगा कौन?
हमने किया है/  देखा है प्रेम
शाश्वत  प्रेम
अनंत प्रेम -
चुप है सदियों से चाँद भी
फूटे नहीं चकोर के कंठ भी
किन्तु उनके बीच
प्रेम का संवाद है अनवरत
सदा ही मौन का संवाद
होता है सतत-
है यह  ब्रह्माण्ड मौन हमारा
पर   कभी टूटा नहीं
एक भी संवाद का तारा
समस्त ग्रहों के बीच निरंतर 
मौन संवाद होते हैं प्रखर
पर नव मानव का स्वर
कुछ कह न पाता
हो कर भी मुखर!

मेरी वसुधा !
नव मानव संपर्क साधता है
संवाद त्वरित भेजता है
फिर भी व्याप्त है संवादहीनता 
यही है उसके  संवादों की दीनता
संवेदना, सात्विकता नहीं
चिंतन, चेतना नहीं
सत्य, शिव, सुन्दर नहीं
उनके संवाद
और उलझाते  हैं गुत्थियाँ
उनके  महल, बनाते  हैं झुग्गियां
संम्वादों के विकट वन में
पनपते स्वार्थ हर मन में-
प्रपंच की चक्की में
स्वार्थ की भट्ठी में
सत्य के शब्द घुंट कर मर जाते हैं 
प्रेम  के बोल दरक जाते हैं-
ये नव मानव
विचारों के जाल बुनते
अष्टपदी मकड़े बन जाते हैं
इन प्रेम के शत्रुओं का संहार
प्रेम से 
स्नेह से
मेरे शब्द करेंगे
प्रेमाग्नि में जलेंगे
स्वर्ण बनेंगे
सुवाषित स्वर्ण बनेंगे नव मानव !
4
हाँ वसुधा!
मैं घन घमंड तो हूँ नहीं
जो गरजूं  कहीं और बरसूँ कहीं
आकाश का कोना कोना घूमूं
इस उस शिखरों को चूमूं
प्रेम रस कुछ पल को बरसा कर
अपनी राह बदल लूं सहसा
शाश्वत रहे संवाद मेरे
क्यों न कोई विकट  विघ्न घेरे
मात्र अक्षरों के योग नहीं
शब्द मेरे
हैं प्रेम के स्पर्श से उपजे
ये अंश मेरे
मेरी पंक्तियाँ
मात्र शब्दों के गुच्छे नहीं
कृत्रिम फूलों के गुलदस्ते नहीं
मेरी उक्तियाँ मात्र ध्वनि नहीं होतीं
ह्रदय से फूट कर
गंगा सी बहती हैं -
चलो पुनः प्रेम-गीत गायें
मौन ग्रहों के शाश्वत संवादों को दुहरायें
प्रकृति की गोद में
चलो, एक छोटा सा पर्ण कुटीर  बनाएं
सुवासित पुष्पों  से 
प्रेम के स्पर्श से 
उसे चहकती चिड़ियों के 
घोंसले सा सजाएं

मेरी वसुधा!
तुम ही मेरे शुष्क जीवन की
आर्द्रता हो
प्राणों की सांद्रता हो
तुमे मेरे लक्ष्य  हो
प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष हो
तुम ही मेरे साधना संबल हो
आत्मबल हो
तंत्र हो
तपस्या हो
तुम ही मेरे सुख और दुःख हो
तुम ईश्वर हो या मानवता हो
तुम जो भी हो मेरी हो
और इसलिए ही
तुम्हारा आग्रह स्वीकार कर
चिर मौन तोड़ा है
हुंकार भर कर 

हाँ वसुधा!
तुम्हारा आग्रह भी सत्यपूरित है 
काल के अनुरूप फलित है
कि सार्थक संवाद
रागहीन  संवादों को
तत्वहीन संवादों को
देते हैं चुनौतियाँ
बदलते हैं उनकी आकृतियाँ
पत्थरों पर पद-चिन्ह अंकित कर जाते हैं
अमिट लीक बना जाते हैं
और  संघर्ष के बीच उपजा सत्य 
मनुष्यता का सत्त्व 
उसकी संवेदना के तत्त्व
सर्वत्र बिखेरते हैं पराग
ब्रह्माण्ड सुरभित करते हैं
घटनाओं के सत्य ही
शूली पर ढलकते हैं
नव जाति के मानव के हाथों
विषधर फंदों पर चढ़ते  हैं

मेरी वसुधा!
प्रेम-दूत कपोतों की वह जोडी                                        
जो नित आती थी मेरी अटारी
प्रेम सन्देश ले जाती थी मेरा
और दे जाती थी तेरा स्नेह सन्देश
वह जुगल जोड़ी  अब नहीं रही
पर उसकी संतति पलती है यहीं
किन्तु उनके परों का संगीत
उनके गुटरूं-गूं का गीत
कुछ अपरिचित सा है
उनकी गति-दिशा में
आए हैं परिवर्तन
भयभीत, भूल गए हैं नर्तन
उन पर नव मानव की छाया है
राहू-केतु की प्रच्छाया है
अब वे मेरे आँगन में दाने नहीं चुगते
डर जाते हैं
सूरज के उगते
दूर कहीं वन-उपवन में जा कर
निनादित करते हैं स्वर कातर
आँगन से टूट गया उनका सम्बन्ध
जब से नव मानव हो गया कबंध

मेरी वसुधा!
नव मानव ने प्रकृति को 
शोधा इतना 
कि झेल न पाता हूँ
उसका  प्रतिपल  रोना
आंसू बहे इतना
सागर में खारा जल जितना
बस बांकी है
मरुथल में स्मृति-स्तूप बनाना
इस युग का दोहन राग सुनता हूँ
कथित क्रांति में
उबलता स्वार्थ देखता हूँ
ऐसे में इन कपोतों की क्या बिसात
भय विह्वल लघु पक्षी की जात
निर्दयता की सीमा देखो
कोमल कपोतों को
बना डाला युद्ध-संदेशों का वाहक
नव मानव ने
अमृत में विष घोल
बनाये हाला
कोमल होठों पर
ये जब रख देतें हैं प्याला
पाता यह नव-मानव 
बेढंगे कर्म करेगा
कितने नव-नव
किस किस की प्रवृत्ति को
नित दिन रौंदेगा यह  हीन
जीएगा कैसे सबका सुख  छीन

मेरी वसुधा!
अब हांफते लोग यंहां
नव गिद्धों  के भय से कांपते लोग यहाँ
प्रेम -पत्रों वाली पतंगें नहीं उड़ाते
क्या कहें, लोग प्रेम कर ही नहीं पाते
फिर भी सूना नहीं है
आज का आकाश
रंग उसका अवश्य है
कुछ उदास-उदास
और अब  उड़ती हैं
दिन में नहीं
अंधेरी रात में
दिखाती हैं नई नई कलाबाजियां
आकाश से धरती तक
शिकार  ढूँढती हैं 
पकडती हैं
घोंटती हैं
नोचती हैं
निगलती हैं
फिर मारती हैं किलकारियां
और असली  गिद्ध सहमा-सहमा-सा
बोलता है गूंगे-सा
यह नव जाति का मानव 
क्यों जीवंत को  मानता है  शव?
१०
मेरी वसुधा!
जो कल तक कालिमा कहलाती थी
जो मानवीय नहीं होती थी
जो स्वीकार्य नहीं होती थी
जो अप-संस्कृति  कहलाती थी
वही नव जाति के मानव की
जन्म दात्री है
गंगा-गंगोत्री है
नव प्रकाश पुंज है
जिसमें आँखें टिकती नहीं
और राहें सूझती नहीं
राह वही उनकी है-
नव मानव की
अनंत इच्छाएं हैं
अनंत कामनाएं हैं
जो अब
चादर बन कर
सब के अस्तित्व पर
बिछ गयीं हैं-
कोई जोंक कर्ण के जांघ को
बेधने के साथ-साथ
उसकी अस्थि को भी छेद रहा है
और कर्ण विचलित है
धर्म उसका पराजित है
आज के इस कर्ण को
कौन गुरू स्वीकारेगा?
कौन दुर्योधन मुकुट पहनायेगा?
११

मेरी वसुधा!
कबीर की वह चादर

जिसे उसने जस की तस
पहन कर धर दी थी
चोरी हो गयी है-
दारोगा सोया था
रपट लिखी नहीं गई है!
पर मैं जानता हूं
उस चादर की धवलता पर
किसी काली सत्ता ने
नयी रंगसाजी की है
उस पर रक्त-मज्जा छितराया है
उसे आंसुओं से सजाया है
और नव मानव
उसी चादर को ओढ़ कर
निर्दोष प्रजा को
आदेश-निर्देश दे रहा है
राजा की तरह
प्रजा के लिए नहीं
देवता की तरह
भक्त के लिये नहीं
अपने लिए और
मात्र अपने लिए!
१२

मेरी वसुधा!
कबीरी चादर की बात करते ही
देखो, मुझे याद आ गई वह धरती
जिस पर, कोमल हरित दूब की
चादर बिछा करती थी
और उस पर बैठ कर हम दोनों
आने वाली पीढ़ी का
भविष्य रचा करते थे
बीते पलों को झांक कर
आने वाले पलों की
कथा लिखा करते थे
तब अपना प्रेम
अपना उत्साह
अपनी लगन
सब कुछ अपना होते हुए भी
आने वाले पलों के लिए
सब कुछ
समर्पित थे
अर्पित थे
हम ज्ञान की ज्योति ले कर
कांटे भरी राहों में चले
ताकि कोई कण
अंधेरे में न रह जाए
किंतु
आज हमला अंधेरे का है……
१३
वसुधा!
इन खण्डहरों में भी प्रेम बरसता है
हर बिखरी ईंट पर
प्रेम-स्पर्श के  चिन्ह मिलते है 
पर मैं देख रहा हूं
प्रेम विहीन
रात में जागती अट्टालिकाओं को
उनके शिल्पियों को
वहां तुम भी देखो-
इस्पाती मानव देखो
काठ का उनका  ह्रदय  देखो
भाषा में तलावार की खनक देखो
रिश्तों में
बहता-डूबता गंदा लहू देखो
प्रेम कों शरीर बनता देखो
संसार के इस नये चित्र के लिए
प्रयुक्त अनजाने रंगों को देखो
अनचाहे रंगों को देखो
उसकी कृतियों की विकृतियां देखो
और
विकृतियां की कृतियों देखो!
१४
मेरी वसुधा!
देखो
मैं तुमको
भयभीत नहीं कर रहा
सच्चाई बता रहा हूं-
कंकरीट का यह घर देखो,
संबंधों का मकबरा है
झांको इस घर में
और दुखों का इतिहास देखो
मिटती संवेदनाओं
घुटती मर्यादाओं
रोती बाल्यावस्था
सिसकती तरुणावस्था
और तड़पती जरावस्था की
कथा-व्यथा जानों
जो
अनेकानेक वर्जनाओं से आवृत्त है 
१५
मेरी वसुधा!
वह पांचाली की तरह रोई नहीं
चींखी, चिल्लाई नहीं
क्योंकि ऐसा कर के वह क्या कर पाती-
वह तो द्रोण के हर रूप को जानती थी
भीष्म के इतिहास का उसे ज्ञान था
पांडवों की विवशता का उसे ज्ञान था
और
एक पांचाली विलाप करती तो
कृष्ण भागे चले आते
किसी के वस्त्र को अनंत कर जाते
पर आज तो चित्र ही अलग है-
हर घर,मुहल्ले या खंभे के नीचे
असंख्य पांचालियां
विवश खड़ी हैं
होठ भींचे-
उनके मौन चित्कार से
कांप रहा है संपूर्ण ब्रह्माण्ड
अब कृष्ण कहां-कहां दौड़ें
किस पांचाली को संहालें
किस को छोड़ें-
खैर, उनके चींखने से  
कंकरीट की छ्त ध्वस्त नहीं हो जाती
और अगर ध्वस्त हो भी जाती
तो उसके नीचे
उसका ही शव होता-
आज पांचालियों को
मर-मर कर जीना होता है
दूसरों के लिए मुस्कुराना होता है
उन्हें अपनी कथा की
पगली विष-धारा में
उलझ-उलझ कर
बार-बार
चट्टनों पर लहू-लुहान होना पड़ता है
रेत में समाना पड़ता है
कीचड़ ओढ़ना पड़ता है
विष से संपूर्ण शरीर भर जाने पर भी
उन्हें जीना पड़ता है!
१६
मेरी वशुधा!
नव गिद्धों के चंगुल में
फंसी चिड़िया
पर तक नहीं फड़फड़ाती  
न ही भय स्वर उच्चारित करती हैं
शून्य में ठहराव पर
जीवन के अंतिम पड़ाव पर
जीव मृत्यु  से
प्रेम कर लेता है
उसके लिए प्राण का शोषित होना
है स्वावाविक घटना का होना
उसकी देह का भोग बन जाना
है चिड़ियों की विवशता
गिद्ध के जीवन की सरसता
लहू का स्वाद जिसने चख लिया है
इस युग को उसने लाख लिया है
१७
मेरी वशुधा !
वह करुणामय दृश्य
नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता......
पर पर कर नुचती चिड़ियों को
पर पर कर नुचती  चिड़ियों को 
अंग अंग टूटती चिड़ियों को
ज़िंदा रहती हुई 
मरती चिड़ियों को
मैं नहीं देख सकता....
हर रात  किसी  को
चिता पर चढ़ाना
फिर उसको
अहले सुबह 
सडक पर छोड़ देना
ताकि वह फिर से 
रात में चिता पर 
उसे सजाया जा सके.....
मुहे यह सब असह्य लगता है
लेकिन
नई जाति के मानव को
कुछ भी असह्य नहीं लगता है-
उसकी संवेदनहीनता
बिखरी पड़ी है
चिड़ियों की बिखरी हुई
बोटियों पर!
१८
मेरी वसुधा!
उन चिड़ियों की मृत्यु ने 
उन पत्थरों को
बहुत रुलाया है
जिनके तन पर
उनके  पर बिखरे
लहू छितराए
लेकिन नव गिद्ध
अपने घोंसले में
अगले अभियान तक
आत्मतुष्ट हो कर
निद्रा में चला जाया करता है
लेकिन सपने में भी
वह देखता रहता है
अपने को बहेलिये के रूप में
चिड़ियों को जाल में फंसाता हुआ
उनको नोचता खसोटता हुआ!