रविवार, 22 मई 2011

मसाईल





जमीं की मसाईल आसमां  पे क्यों छोड़ें
सारी बातें यहाँ की जमीं पर किया करें 
खुदा खुदा करते क्यों काटें दिन रात 
कुछ पसीना  इस जमीं पे हम भी गिराया करें  

शनिवार, 14 मई 2011

वह

वह उनके बच्चों को
बस स्टाप तक पहुंचाती
सजा सवांर के
नाश्ता करा के
स्वयं भूखे पेट
किताबों का थैला ढोती
स्वयं किताबों से दूर
बचपन से दूर
परिवार की रोटी हो गयी
दिन भर एसी लगे घर में
काम करती
खटती
मरती
थकती
और रात में
पसीने से तरबतर
अपनी झोंपड़ी में
ढेर हो जाती
और आज और आज
उसकी झोपड़ी भी
बुलडोज़र के नीचे आ गयी
और और
आज की रात
बहुत भयावह होगी
कोई सरकार
कोई न्यायलय
कोई पहरेदार
उसके बचपन को
तार तार होने से बचा नहीं पायेगा
वह सब्जी बन जाएगी.......

 

सोमवार, 9 मई 2011




कहाँ खिलते हैं कमल
यह देखना हम भूल गए
जूही चंपा चमेली  हम भूल गए
चाँद सूरज तारे को भी  भूल गए
भूल गए हम दूध दही माखन
भूल गए हम अपने मन के उपवन
गढ़ रहे हम अब नए रंग के  गीत रीत
भूल गए हम बचपन के मीत
जिस आँगन में पनपा जीवन
भूल गए हम वह आँगन
भूल  गए हम तो तुलसी चन्दन
भूल  गए हम अपनों का अभिनन्दन
याद न आता अपना गाँव 
अनजान डगर पर चल पड़े पाँव 
नक़ल करता अपना यह  जीवन
विकल्पों में जीता अपना यह  जीवन
कहाँ गए संवेदना के स्पंदन
भूल गए  करना हम  माटी का वंदन


  




पहले उनसे कुछ कुछ डरता था
कुछ सहमा सहमा रहता था
पर घुलने मिलने का उनसे 
मेरा मन भी करता था
कभी माँ के माध्यम से
बातें उनसे  करता था 
पर मन  मेरा नहीं भरता था
कुछ बड़ा हुआ तो 
लगा मैं उनको पढने 
और उन्हें समझने
वे तो बड़े सहज थे
मैं ही मूरख उनसे डरता था
और धीरे धीरे
रंग में उनके मैं रंग गया
उनकी बातों में रम गया
माँ भी लगी थी कुछ कुछ जलने
लगी थी मुझको कहने--
"बाप का बेटा
बे पेंदी का लोटा"
और फिर वह हंसती
और मेरे गाल पर
प्यार की चपत लगाती
और वे कहते--
"बेटा तो हरदम  करता है
रोशन माँ का नाम
और इस निखट्टू के लिए
क्यों करती हो
मुझको बदनाम."
बड़ी ही मीठी यादें
जो अब भी मुझको
ले जाती हैं बचपन में
सहा सुलभ बपन में......


रविवार, 8 मई 2011





निर्मल निश्छल कोमल मधुरिम
वन्दे मातरम् वन्दे मातरम
तू चन्दन  तू स्नेह-स्पंदन
हम तेरे नंदन 
तेरे ह्रदय की धड़कन 
तेरे सपने हम साकार 
मेरे संग तू अब निराकार 
ममता की तू गंगा 
त्याग  की तू  पर्वतमाला
स्वर्ग तुम्हारे आचल
तू श्रृष्टि है तू बादल  
निर्मल निश्छल कोमल मधुरिम

वन्दे मातरम् वन्दे मातरम
हर राग में तू मनभावन
सब धामों में तू पावन
तू मोती तू कंचन
तू भयहरण 
जाऊं मैं हर दिन 
तेरी चरण-शरण  
निर्मल निश्छल कोमल मधुरिम

वन्दे मातरम् वन्दे मातरम




मेरी हर सांस तुम्हारी
मेरी हर शरारत तुमको प्यारी
मेरी गलती अपने सर










  

शनिवार, 7 मई 2011





वह मेरी एक और माँ थी
मुझे फुटपाथ पर
बेहोश मिली थी
जब मैंने उसके सर को
अपनी बाँहों में उठाया
तो देखा
उसकी बाँहों के चमड़े
फुटपाथ पर चिपके हैं
मैंने उसे पानी पिलाया
होश में लाया
अस्पताल ले गया
'दो चार दिन की मेहमान है'
डाक्टर ने बताया
उसे घर लाया
उसके बालों  में कंघी  की
उसे नहलाया 
उसकी पसंद की चीजें
उसे अपने हाथों
खिलाया
और और और
वह उसके जीवन का
दिन था अंतिम 
उसने मुझे बताई

अपनी कहानी
चार अमीर बच्चों  की
थी वह माँ
और और और
जब  खिला रहा था मैं उसे
खीर के कौर
उसने मेरा माथा चूमा
मुस्कुराई
और और और
मेरी बाँहों में
सो गयी सदा के लिए
और और और
मैंने  आज भी 
उस  मुस्कान को
अपने ह्रदय में
रखा है सजाए  
दुनिया की सबसे कीमती मुस्कान
एक माँ की मुस्कान ! 

   

शुक्रवार, 6 मई 2011




तू ही अमृत
तू ही आचल
तू ही छाया स्नेह की
तू ही ममता
तू ही संवेदना
तू ही काया सेवा की
तू ही वृक्ष
तू ही नदी
तू ही झरना प्रेम की
तू ही अर्चना
तू ही पूजा
तू ही अग्नि  यज्ञ   की 
तू ही राग 
तू ही गीत 
तू ही ज्योति जीवन की  

गुरुवार, 5 मई 2011

अनशन पर





बाबूलाल अनशन पर
अर्जुन बैठे बुलडोज़र पर
गरीब का घर
हुआ खंडहर
झारखण्ड  में
मचा बवंडर
सुगिया आ गयी
सड़क पर
मुन्नी के स्कूल बैग पर
चढ़ गया बुलडोज़र
अर्जुन हुए सवार
नए अध्यादेश पर
अपना कार्यालय भवन
अपने अमीरों के भवन
बचाने को तत्पर
नव युग का अर्जुन देखो
देखो नूतन मंजर
ह्रदय बंजर
संवेदना का कब्र
बाबूलाल अनशन पर
अर्जुन बैठे बुलडोज़र पर



 



बुधवार, 4 मई 2011

पल पल




पल पल
जीवन घुलता जाए
पल पल
समय बदलता जाए
बादल आए
बिन बरसे जाए
सपनें टूटें पल पल
अपनें छूटें पल पल
सासें तड़प रही हैं
आहें बरस रही हैं
मन का मौसम
बदले पल पल
कभी अँधेरा
कभी उजाला
सब कुछ
बदले पल पल
दिल के सारे अरमान जले
जले न घर के दीपक
पल पल
दहशत घेरे
विषधर फुफकारे
कुछ समझ न आए
पल पल
जीवन घुलता जाए
पल पल
समय बदलता जाए




शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

ये हाल क्या है





मत पूछिए कि उनका अब ये हाल क्या है
चुप है शोर क्यों  अब ये उनका  हाल क्या है

चले गए मुझको वो कर के तन्हा
तन्हा तन्हा अब ये उनका हाल क्या है

उनको लिखते रहे हम ख़त  खूने जिगर से
सीखते हैं जुबां वो अब ये उनका हाल क्या है

ख्वाब में भी देखा दिल में बिठाया
वो तड़पते हैं क्यों  ये उनका  हाल क्या है

जलाते रहे हम चराग अपनी गली में
रोशनी जोहते अब ये उनका हाल क्या है

जागते ही गुज़ारी सारी सारी रात
वो नींद को तरसते  ये उनका हाल क्या है




शनिवार, 16 अप्रैल 2011






वर्षों तक
अन्धकार में दफ़न रहने के बाद
दोस्त!
मैं एक कतरा रोशनी देख रहा हूँ
लेकिन
इस रोशनी पर भी
काले काले धब्बे देखा रहा हूँ 
दोस्त!
शायद
कोई
मशाल ले कर बढ़ रहा है
और
अन्धकार ने उस पर हमला कर दिया है
यह एक जंग है दोस्त!
मदमत्त अंधकार
अपने  आप को
सर्व शक्तिमान मानता है
वह अट्टहास कर रहा है
वह मशाल का मजाक उड़ा रहा है दोस्त!
लेकिन
मशाल को इसकी चिंता नहीं है
वह अपनी छोटी सी जिन्दगी को
जीना जनता है
वह जब तक जीएगा
अन्धकार  को चीरता रहेगा
दूसरों के लिए ही
जलता रहेगा दोस्त!
देखो दोस्त !
मेरी कविता में बहते शब्दों को
हर एक शब्द
एक मशाल है दोस्त!
ये शब्द जलेंगे
जलते रहेंगे
तमसो मा ज्योतिर्गमय !






सोमवार, 11 अप्रैल 2011

अन्ना का ढोलक बाजे मोदी को चमकाय
बेसुर होते ढोलक को बेदी ने ब्रेक लगाय
कुछ न होगा कानून से सिब्बलजी फ़रमाय
अपना अनुभव वकालती झटपट दिया बताय
मार गुलाटी बाबा ने पूर्वज याद दिलाय
बाबा के योग शिविर में गरीब पैठ न पाय
लोकपाल बना विवादित जनता को चकराय
बाल ठाकरे गरजे अन्ना  जी सो जाय

बाबा की पोल खुली अन्ना की पोल खुली
भाजपा की पोल खुली कांग्रेस की पोल खुली
यहाँ तो राजनीति पर राजनीति ही चली
राजनीति के स्पर्श  से जन्मते भ्रष्ट  औ' छली
ये लाचार जनता जाए तो जाए किस गली
भ्रष्टाचारियों के आगे किसी की न चली

 




सोमवार, 28 मार्च 2011

आँगन में
सुबह की सुहानी धूप
चूमती
दमकती
तुलसी की पत्तियां....
धूप में घुलती
होम  की धूम
चन्दन की अगरबत्तियों की
सुगंध
और साथ में खनकती
नई बहू   की पायल
प्रार्थना के मधु मिश्रित  स्वर -
हे सूर्य देव !
इसी तरह हर दिन
सुबह सुबह  आना
देर तक हमें किरणों से
उजाला देना
कर्म का सन्देश देना
हे सूर्य देव!
स्वीकारो जल का तर्पण
अक्षत मेरे आँचल के
श्रद्धा मेरी आत्मा से ......
आँगन में

सुबह की सुहानी धूप
चूमती
दमकती
तुलसी की पत्तियां....
धूप में घुलती
होम की धूम.........




 



रविवार, 27 मार्च 2011


इंसानीयत पर हैवानियत का साया


सच पे है क्यों आज झूठ का साया

क्यों ये नाते  तिजारत   हुए जा रहे
बागों पे है क्यों कातिलों का साया

डरी  हैं कलियाँ जो ये  खिलती नहीं
क्यों जिन्दगी पे  है मौत का  साया 

खेतों     पे    पसरी  है    बारूदी गंध 
चौपालों पे   क्यों है   चुप्पी   का साया

ये इंसां कर   गया   इतनी  तरक्की 
हर  दिल के ऊपर लोहे   का साया 

दोस्त बिना जिगर के आ रहे  नज़र
कहाँ कहा तक ये  नफरत का साया





  






शनिवार, 26 मार्च 2011

हो के मायूस न आँगन से उखाड़ो पौधे
धुप बरसी है तो बारिश भी यहीं होगी

अनंत काल से
समस्त ग्रह
एक दूजे  से कर रहे हैं प्रेम
कर रहे हैं संवाद सतत
मौन संवाद
शुद्ध संवाद
त्रुटिहीन संवाद
कभी एक दूजे से मिले नहीं
जब काल की धड़कने मिलती हों
जब आत्मा का स्पंदन  एक हो
जब लक्ष्य एक हो
तो हो जाता है अनजानों में प्रेम
प्रेम सच की भाषा है
ह्रदय की भाषा है
जब एक ह्रदय अपनी पहचान खो कर
दूसरे ह्रदय में समाविष्ट  हो जाता है
तब होता है प्रेम
प्रेम बाजार में तराजू से तौल कर नहीं होता
किसी प्रयोग के आधार पर नहीं होता
रूप रंग के आधार पर नहीं होता




शुक्रवार, 18 मार्च 2011





रूठ गयी है राधा मेरी ना खेलेगी रंग 
सूखी होली में कैसे भीगेगा  तन मन अंग

मिले न पिस्ता  बादाम क्या घोंटेंगे भंग
नाव चलेगी क्या चढ़ के इस बालू के तरंग

महंगी  की मुट्ठी में है सबका अब दिल तंग
आसमान में कट गया धागा चिद्दी हुई पतंग 

न मन बसिया न मन रसिया कहाँ छिपे अनंग
भूले कान्हा बाँसुरिया कौन बजाये मृदंग

बाजे न झांझ मजीरा टूटे सपने उडी पतंग
आओ चलें फकीरी में हम सब मस्त मलंग






 

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

बन के बावला

बन के बावला ता उम्र  ढूंढता  रहा मैं मुहब्बत अपनी
जंगलों पहाड़ों गलियों में देती रही दगा मुहब्बत अपनी

सिसकती रोती  रही वहीँ पे तन्हा तनहा मुहब्बत अपनी
कभी न तो सोचा न किया न देखा ख्याल हमने अपने दिल का

दिल का ख्याल दिल ही रखना  जाने
इश्क का ख्याल दिल ही रखना जाने


यूं  रुलाने ख्वाब में   क्यूं  कर  आईयेगा
ख्वाब न हो जिस नींद में  वो दे जाईयेगा
जगाया  बहुत आपने पलकें झुकी जा रहीं  
 जो टूटे न नींद वो  मुझे दे जाईयेगा


है तुमको आदत याद छिपाने की 
दिल से दूर जाने औ' सताने की 
करती ही रहना  तुम ये खेल मुझसे
तमन्ना नहीं कुछ  खोने या पाने की

समंदर को अपनी गहराई औ' लहरों पे था गरूर
डूब कर ले आया मोती  मुहब्बत के मेरे हुजूर


रोज  नए ताने  मुझ पे मारे  ये  जमाना
मुझको ये  गम दे दे के बनाते हैं   दीवाना
तुम क्या रूठे सनम तितलियाँ भी रूठ गयीं
मुहब्बत के मारों को मिले न  कोई ठिकाना
मैं कैसे भुला दूं  वो मेरी बाँहों का  चेहरा
गुलाबी होठों का वो फड़कना  मुस्कुराना
तेरा चुपके  से आना बालों को सहलाना 
आतें हैं याद   मुझको   वो किस्से सारे पुराने
दोपहर में छत की धूप तब लगती थी चांदनी
देखो अब इस चांदनी का   सुलग-सुलग जाना
दूब सी कोमल औ' झरने सी चंचल  वो काया
यूं वीरान हुई जाती है तेरे बिन ये जिन्दगी
जैसे हुए ठूँठ पेड़ों से   चिड़ियों का उड़  जाना


हर मायूसी के बाद इक हंसी सुबह तो होगी
हर गम के बाद इक हंसी मुस्कराहट  तो होगी
ख़ुशी औ' गम इस जिंदगी  के हैं दो हंसी किनारे
कदम तो बढ़ाओ कहीं पे हंसी जिंदगी तो होगी

जीवन ही तो विस्मय है विस्मय ही तो जीवन है

सपना टूटे या जी उठे विस्मित करता वह जीवन है
हर क्षण  प्रति पल  जीवन में कोई रचता  विस्मय है
प्रति पल बदले  जीवन यह तो अद्भुत नील गगन  है


रूठ गई     है राधा      मेरी  ना खेलेगी रंग  
सूखी होली में कैसे भीगेगा तन मन अंग
नाव चलेगी क्या चढ़ के इस बालू के तरंग
मिले न पिस्ता बादाम   अब क्या घोंटेंगे भंग
महंगी की मुट्ठी में है सबका अब दिल तंग
आसमान में कट गया धागा चिद्दी हुई पतंग
न मन बसिया न मन रसिया कहाँ छिपे अनंग
भूले कान्हा बाँसुरिया कौन बजाये मृदंग
बाजे न झांझ मजीरा टूटे सपने उड़ी उमंग
आओ चलें फकीरी में हम सब मस्त मलंग

गांव का गांव समन्दर में घुलता देखा

अपने हाथ में दिल को पिघलता देखा
अlपनी सांसों को    मैंने सिमटता देखा
हजारों हजार ख्वाबों  को बिखरता देखा

इश्क है  करना कोई आसां   तो   नहीं
इश्क है कहना कोई   आसां तो  नहीं
दिलेरों का काम दिल का लेना   देना
इश्क है  बढ़ना कोई आसां तो नहीं
कैसे जानूँ मैं इन  चूड़ियों का मिज़ाज

इश्क है जगाना कोई आसां तो नहीं
कांपते होठों से  और  तड़पते   दिल से
इश्क  है सुनाना कोई आसां   तो नहीं
उस अनजान से    मुझको  है  पहचान
इश्क है जताना   कोई आसां तो  नहीं


 


सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

हैप्पी होलियम
































हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम

हैप्पी ईदम/बैसाखियम/
हैप्पी सरहुलम/ क्रिस्मसम
हैप्पी हिंदी डेयम
हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम
खेलियम   अकबरमं   टोडरमलम
तुलसी रहीम मित्रं
उछालीयम  अबीरं गुलालं
हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम
हैप्पी मुन्नियम/हैप्पी शीलायम
हैप्पी दुःख हरणं  झंडू बामं
मलयं-मलयं पुटठं 
हैप्पी  नृत्यं
झूमयम  राग  खिचड़ीयम  
कमर  तोड़यम
हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम
साठं शरीरं दिल बल्लियम
उच्च रक्त चाप भूलियम
सखी संगमं झूला झूलीयम
चीखम  चिल्लायम  
उल्लासं पलाशं हैप्पियम
हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम
हैप्पी प्याजम/हैप्पी मिर्चियम 
हैप्पी  मुर्ग  मुसल्लं
हैप्पी डायन महंगायीयं
चुप्पी मनमोहनं
हैप्पी   मनमोहनं
दाल लापतम/चीनी ना दिखं
दूध के पीबतं
हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम

जिन्ना-राडिया  प्रियं  लालकृष्णं
सोनिया मित्रं
मध्ये प्रेम-पत्र आदानं-प्रदानं  
काला धनं मध्ये एक विचारम 
न इनकी जेबम
न उनके कूचम
काला धनं काला धनं
परम सुन्दरम/परम सुन्दरम
 हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम 






 
  
  















































  
    

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

          




            हम उस भारत की पूजा करते   हैं
जहाँ  बहती   समभाव की वेद-गंगा
जहाँ फूटी  थी तांडव   से शब्द-गंगा

          हम उस भारत की पूजा करते   हैं
जहाँ राम ने खाए  जूठे   बेर पवित्र
जहाँ रत्नाकर बन जाते  विश्वामित्र
तुलसी  और रहीम   रहे  जहाँ  मित्र 
बसे ह्रदयमें जिस धरती का चित्र
         हम उस भारत की पूजा करते   हैं

  

जहाँ कबीर ने चादर सच की तानी
जहाँ गूंजी    गुरु गोविन्द की वाणी

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

लड़ सकता हूँ तूफानों से 
रुकी हवा से क्या  लड़ना
हरा सकता हूँ लहरों को 
ठहरे पानी से क्या लड़ना
चीर सकता हूँ बादलों को
सूने नभ  से क्या लड़ना
गिरा  सकता हूँ  पर्वतों को
इस रेत से क्या लड़ना














































मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

मेरी गलियां


थक गया हूँ चलते चलते साँसें उखड़ गयीं
मेरी गलियां  सपनों की यूं ही  की उजड़ गयीं 

हरे भरे पेड़ों के पत्ते झर झर कर झर गए
सारी तस्वीरें मंदिर   की यूं ही बिखर  गयीं

जिन पुरानी  यादों  में मेरा मन  रमता था  
उन यादों   पर उदासियाँ    यूं ही पसर गयीं

पड़ने लगा है पीला जीवन का हर इक पन्ना  
हृदय    की सारी इच्छाएँ यूं  ही ठिठुर  गयीं

है तो राह वही  पर  उसने   दिशा बदल ली 
दो प्यारी-प्यारी  चिड़ियाँ यूं ही बिछुड़ गयीं 

कलम कांप रही है पन्ने फड़फड़ा रहे हैं 
विराम के पूर्व पंक्तियाँ यूं ही सिहर गयीं







   

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

क्यों निकला आह से गान?



क्यों निकली कंठ से आह?
क्यों निकला आह से गान?
चलो पूछते हैं,
वाल्मीकि से
"मैं था क्रूर दस्यु
दया और संवेदना
मेरे पेशे में वर्जित थीं
लेकिन, एक  दिन कुछा ऐसा घटा-
तमसा नदी के तट पर
मैं जा रहा था
कर रही थी क्रौंची करुण विलाप
मृत क्रौंच को देख
उसे मारने वाले व्याध पर 
वह नन्हीं  सी जान क्रौंची
बीच-बीच में
हमला भी कर रही थी
पिघल गया मेरे अंदर का दस्यु
और मैं बोल पड़ा अनुष्टुप छंद में-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: शमा: 
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधि: काममोहितम...
फिर मेरी इसी आह से निकला गान..."
चलो पूछते हैं बुद्ध से
क्यों निकला आह से गान?
"जब तक मैं था राजमहल में
अछूता था मैं दुःख से
लेकिन,  एक दिन जब 
निकला राजमहल से बाहर
तो दुःख ही दुःख देखा
और मैं सिद्धार्थ से बुद्ध बन गया
और  हर आह के लिए मेरे मुख से
दया, क्षमा, करुणा की फूट पड़ी धारा
और राजमहल को त्याग मैं
पहुच गया दीन-दुखियों के बीच
तलाशने छोटे-छोटे सुख
दुखों के बीच जन्म लेने वाले सुख..."
क्यों निकली कंठ से आह?  
क्यों निकला आह से गान?






















गुरुवार, 27 जनवरी 2011

दगा दे गई




फर्क कुछ लगता नहीं जिन्दगी और मौत में
जिन्दगी तो जिन्दगी मुझे मौत भी दगा दे गई

बार बार  करवटें बदलीं कबाबे सींक  की तरह
जलने का गम नहीं पर जलन भी दगा दे गई

हर दरवाजे सिर झुका  मौत की मैंने  दुआ मांगी
दुआएं क्या करतीं जो  किस्मत ही दगा दे गई

वफ़ा की थोड़ी  उम्मीद की  अपनी मुहब्बत से
मुहब्बत तो मुहब्बत दुश्मनी भी दगा दे गई

बेपरवाह खेलते रहे हम   जुआ बड़ी ईमानदारी से
हाथ में थी इक्कों की तिकड़ी  वह भी दगा दे गई







शनिवार, 22 जनवरी 2011

ग़ज़ल न जाने कहाँ खो गई







तू चांदनी सी कोमल नदिया सी चंचल
तू यादों की धारा में सुवासित कँवल
तितलियों के पीछे वो तिरते तेरे कदम
वो भी क्या हसीं दिन थे ओ मेरे सनम
यादों में वो किलकारियां अब हैं खनकतीं
यादों की वो डोरियाँ क्यों कर हैं यूं उलझतीं
इस दुनिया से बिलकुल अलग वो दुनिया
कहाँ खो गई सनम बचपन की वो दुनिया
अब तो राहों में हैं बिछी काँटों की डलियाँ
हाथ बने जाल क्यों यूं मसलते हैं कलियाँ
गहरे पानी में छिपती आज क्यों मछलियाँ
खेलने से डरती हैं हमसे सारी तितलियाँ
वो प्रेमी कपोतों की जोड़ी कहाँ गुम हो गयी
मुहब्बत की वो ग़ज़ल न जाने कहाँ खो गई







शनिवार, 8 जनवरी 2011

पवित्र निर्णय



जज साहेब बड़े रोब-दाब में
अपने आसन पर डंटे थे
मैं एक मुजरिम का
वकील था.....
मेरे मोअक्किल पर
एक  दो नंबर के पाजी लड़के का
आरोप था
कि उसने
उसकी  ड्रीम गर्ल का
मोबाइल नंबर
किसी एक नंबर के आदमी को
दे दिया
और उसने
उसकी ड्रीम गर्ल को डांटा........  
मैंने उस पाजी से
पूछ-ताछ शुरू की-
"क्या तुमने एक नंबर के आदमी को
मोबाइल पर कभी बताया
कि तुम किसी हसीना के साथ 
फिल्म  गोल-माल टू देखने गए थे?"
लड़के ने कहा-
"मैंने कभी एक नंबर के आदमी से
बात नहीं की,
यह मेरा रिकार्ड है."
मैंने पूछा-
"लेकिन तुम्हारे  मोबाईल का
रिकार्ड बताता है कि
तुमने उससे बात की 
और उसे बताया कि 
तुमने एक हसीना के साथ 
फिल्म देखी,
हाथ में हाथ लिए!"
कई बार झूठ बोलने के बाद,
उस दो नंबर के पाजी ने
स्वीकार किया कि उसने ही
अपनी ड्रीम गर्ल का
मोबाईल नंबर 
एक नंबर के आदमी को दिया.
जज साहब ने टिप्पणी की-
"यह लड़का तो झूठ पर झूठ बोलता है....
ठीक है, मै कल निर्णय सुनाऊँगा."
और कल जज साहब ने 
उस दो नंबर के पाजी के पक्ष में 
अपना पवित्र निर्णय दे दिया !!!!!!
फिर जज साहब  ने
मुझ वकील को भी
धमकी दे डाली-
"याद रखो,
तुम वकील साहब हो तो
मै जज साहब हूँ!!"

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

सिर्फ मैं और मैं ही रहूं



आदमी की आंखें बदल गयीं
उसका दिल बदल गया
उसका जमीर जल गया
उसका खून गन्दा हो गया  
उसकी कलम का
लक्ष्य बदल गया
उसमें स्याही की जगह
कालाधन भर गया

जो सियार की तरह
भ्रष्टाचार पर बहुत
हुआं-हुआं कर रहे थे-
उनके गले में भ्रष्टाचार
अटक गया

फिर भी वे अपनी रक्षा में
अपने साथियों के साथ
शब्दों का जाल
बुन रहे हैं
अपना ट्रायल खुद कर रहे हैं
और खुद ही
अपनी पीठ ठोंक रहे हैं

उनका पेशा है
किसी से भी बात करने का
वे बात करने की
पूरी स्वतन्त्रता
चाहते हैं
और चाहते हैं कि
दूसरा न बोल पाए 
दूसरा न रो पाए
दूसरा न पनप पाए 
सिर्फ मैं और मैं ही रहूं
सब कुछ मैं के नीचे हो
सेवा में हो
स्वागत में हो
माले में हो
जयगान में हो

सारे कमजोर कांपते हाथ
उसके हाथ को मजबूत
और मजबूत करते रहें
उनकी मौज हो और
 दूसरे  मर भी न पाएं

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

दूसरों की गली में मेरा फेरा हो गया था



नसीब ढीला दिल कतरा कतरा हो गया था 
नाकामयाबी    का  जो   खतरा   हो   गया   था

अपने ही    नसीब में   क्यों   काली रातें थीं
सबका ही नसीब क्यों सुनहरा हो गया था

शायद   मेरा   यही   सोचते   रहना ही कहीं
मेरी जिन्दगी का इक  दायरा हो गया था

पास अपने खुदा ने जो बख्शा  देखा नहीं 
दूसरों की   गली में मेरा फेरा हो गया था 

झोंपड़ी    से  उस   महल  को देखते  -  देखते
क्या मैं बस सपनों का चितेरा हो गया था

महल की रोशनी देखी ईंटो के आँसु नहीं
शायद मेरा मन ही अन्धेरा हो गया था

शनिवार, 1 जनवरी 2011

अरे तुम चौथे खम्भे नहीं हो




तुम
महादेवी की तरह नीर भरी बदली हो
या फिर मीरा बन कर विष पीते हो
अरे मूर्ख नीरा बन कर आगे आओ
बड़े-बड़े आफर लाओ
पैंतालीस मिनट में
पैंतालीस करोड़ कमाओ
क्या-क्या बतलाऊं रे बेजान
मैं हूँ इस लोकतंत्र का नेता महान

अरे तुम चौथे खम्भे नहीं हो
चौथे खूंटे हो
जिसमें तुम स्वयं बंधे हो
और जिस तीस ने खूंटा तोड़ा
मेरा पट्टा गले में बांधा
वही बनाते देश का चौथा खम्भा
अब तो मुझको पहचान
मैं हूँ इस लोकतंत्र का नेता महान

अरे चौकीदारी करते हो
और चोरी नहीं करते हो
फिर क्यों चौकीदारी करते हो?
मूड़-मुड़ाय हो जाओ सन्यासी
अरे सत्यानाशी
अधिकारों का दुरुपयोग ही
अधिकारी का अधिकार
मुझसे लो इस युग का ज्ञान
मैं हूँ इस लोकतंत्र का नेता महान

न लल्लू को खून की छूट
और न कल्लू को बलात्कार की छूट
मूरख कोई संगठन बनाओ
आन्दोलन चलाओ
लेवी लो/हत्या करो/बलात्कार करो
और मेरी नीति से छूट पाओ आसान
मैं हूँ इस लोकतंत्र का नेता महान

मत बन तू मुन्नी
मुन्नी हो जाती है बदनाम
बनना हो तो अरुन्धती बन
शहरों की हीरोइन
और वन की नायिका बन
माँ की गोद को डंस
आओ मेरे पास विहंस
करो हास-परिहास रात-विहान
मैं हूँ इस लोकतंत्र का नेता महान 

नए वर्ष पर ठण्ड से कांपते लोगों को अलाव मिले....



नए वर्ष पर
फूटपाथ पर
ठण्ड से कांपते लोगों को
अलाव मिले....
मजदूरों को 
उचित मजदूरी मिले....
हर चूल्हा  जले
हर के लिए भोजन पके.......
हड्डियों में बची खाला
को कोई  एक कम्बल दे दे....
गाँव के बूढ़े बाबा को
कोई  एक ऐनक दे दे.....
आरुषियों को
कोई न्याय दे दे.....
कूड़े में अन्न तलाशते बच्चों
को कोई अक्षर दे दे....
भ्रष्टाचारियों को कोई
सन्मति दे दे......
धर्म, जाति आदि के नाम पर 
समाज को बाँटने वाली शक्तियों को
कोई सच्ची भक्ति में रम दे......
इस नव वर्ष पर......