शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

तुम बादल हो………

ओ पथराए बादल सुन लो
थोड़ा ढलको, कुछ पग चल दो
नील गगन से मेरे घर भी
तुम कुछ किरणों को आने दो

जब करुणा के शब्द बहें तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


मेरी छोटी-सी बगिया में
कुछ कलियों को खिल जाने दो
जीवन हो मेरी गलियों में
अलियों को गुंजन करने दो


अगर विनीत-स्वर गूंजे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


तन-मन होंगे तेरे जलते
सूरज को रोके-रोके
ऊब रहे होगे तुम भी तो
एक जगह पर ठहरे-ठहरे


तुम क्या हो, अब यह सोचो तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


तुम ढंकते-ढंकते सूरज को
पागल, झुलस-झुलस मत जाना
तुम एक जगह पर खड़े-खड़े
ठूंठ पेड़-सा मत बन जाना


अभिनय अपना दिखलाओ तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


ये दुख घनघोर कहीं छाएं
या दुख के सागर लहराएं
हो हार कहीं मानवता की
या सत्य के ध्वज लहराएं


हृदय को जब कुछ छू ले तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


शासक शोषक हो जाएं
या घिर आए आतंक कहीं
आहों पर कोई तरस न खाए
या बिक जाए न्याय कहीं


जब लाचारी यूं पनपे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


सागर से निधि लेकर आए   
किस अर्थ सुधे यह जानों तो
अपने जल-कण झर जाने दो
धरती में रस भर जाने दो


रसवंती की कुछ सोचो तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


अमृत भरा उदर में तेरे
सृजन राग में तुम गा दो
हरियाली को तुम छाने दो
पत्तों को कुछ मुसकाने दो


हरी चुनरिया कुछ हहरे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


मेड़ों पर चंचल बालाओं को
तुम कुछ मल्हार सुनाने दो
कंपित अधरों को गाने दो
गीतों में रस घुल जाने दो


सोन चिरैया कुछ बोले तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


खेतों में रुनझुन बैल करें
बगुलों की पांति आने दो
अपने कंधों पर बीज लिए
कृषकों का मन हर्षाने दो


यह मगन मोर कुछ नाचे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


प्यासी नदिया राह तके है
सावन भादो कब बरसोगे
नदिया के तन पर देखो तो
ये बालू के हैं प्रेत उगे


नदिया की आंखें रोएं तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


अब बालू पर है नाव खड़ी
पतवार चलाएगी किसको
मांझी भी है चुपचाप खड़ा
वह कुछ बोले भी तो किसको


जब यह नदिया पथ भटके तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


नहीं मिला अमरत्व किसी को
बिन मिटे यहां तुम जानो तो
प्राण धरा पर तुम बरसा दो
अस्तित्व-मोह को त्यागो तो


अब अपना हठ कुछ छोड़ो तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


अगर देर से बरसोगे तो
बरसोगे तुम मरुथल में
तेरे जल-कण खो जाएंगे
तप्त रेत पर पल दो पल में


सोंधी माटी कुछ बोले तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


पनघट भी है सूना-सूना
गागर भी है खाली-खाली
उसके नयन टिके तुम पर ही
मत कह देना उसको पगली


यह मतवाली कुछ मचले तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


मंगल सूत्र मिले न उसका
पड़ी अमगंल दुल्हन देखो
सूना घुंघट,   सूना मुखड़ा
उसके विकल प्राण को देखो


यह चन्दा कुछ मुरझाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


मरी खाल के ढोल बजाए
दूर कहीं वह बिरहा गाए
प्रिया बैठी गांव सिवाना
बादल बोलो,वह क्या गाए


विरह-वेदना कुछ उमड़े तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


लो जल गए पंख हंसिनी के
व्यथा हंस की तुम क्या जानों
प्रेम गगन में उड़ते थे वे-
प्राण जमे अब उनके जानों


जब     पंखहीन     मन रोए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


भेजी थी प्रेमी ने पाती
आऊंगा मैं रहना जागी
जागी जागी रात बितायी
पाती पढ-पढ रोती जागी


जब लगन किसी के टूटे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


जब कागा बोला आगंन में
आकुल व्याकुल पगली बोली-
आजा कागा भोग लगाले
ले जा ले जा मेरी थाली


जब सुख कोई दे जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


चली थी कर सोलह श्रृंगार
थक हारी पिया न पायी
पिया ने तो राख में लिपटी
पगली के संग रात बितायी


मन की सुन्दरता झलके तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


पगली जब रोए मुसकाए
पत्थर भी पिघल-पिघल जाए
पर जो सब कुछ सुन सकते थे
दूरी अपनी और बढाए


आंचल  कोई     फ़ैलाए    तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


सोया सूरज जब सागर में
प्रिया तब अलसायी जागी
पिया पिया वह रटती रोयी
रात घनेरी निंदिया भागी


भीगी आंखें जलती हों तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


पिया-पिया वह रटती-रटती
रही घूमती द्वारे - द्वारे
पिया उसके विहंसे देखो
ठारे उसके हिय के द्वारे


वासी घट का दिख जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


वह पत्थर पर सिर पटक रही
थकी मांग के मिली न मुक्ति
अपने संग पिया ले जाएं
टूटे जब स्वारथ की भक्ति


यह प्रिया तन-मन भूले तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


समर भूमि में सैनिक उमड़े
शंख बजे, तलवारे खनकीं
सभी सुहागन ने तब मांगी
रक्षा बस अपने प्रीतम की


भगवान भी दुविधा में हो तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


कोठे पर वह ऐसी आयी
हंसी भी उसकी रोती है
सजी भीड़ जो महफिल आयी
वह भूखों की बाराती है


पिंजरे में कोयल रोए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


याचक बन कर निकली अबला
जब मांग करे वह रोटी की
भूख मिटाने वाले भूखे
तब जाल बनाते रोटी की


दुखी चुनरिया मैली हो तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो




कुहक उठी जो नयी कोकिला
चहक दौड़ी रसिकों की पांति
छंट गयी भीड़ मदिरालय की
समय-पटल पर साकी रोती


दर्पण कोई दिखला जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


वह मदिरालय में आकर भी
एक न मांगा मधु क प्याला
लगा लगाने ऊंची बोली
रोती अपनी साकी बाला


जब आंसू चढ़े हाट पर तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


तार-तार कर उसकी लज्जा
फेंका उसको विष गंगा में
उसे शिला पर लहर झकोरे
वह तड़प रही मन-गंगा में


जब कोई मोती टूटे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


लज्जा पर जो डाके डाले
वे कभी न मुक्ति पाएंगे
मन के अगन-कुण्ड में उनको
अपने ही प्राण जलाएंगे


जब पत्थर सा मन तड़पे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


"तू ने क्यों यह लाश चढ़ाई",
जलती चिता क्रोध में बोली-
"इसे बर्फ पर अभी सुला दो
यह पगली तो सौ बार जली"


अंग-अनंग जले कोई तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


इसके मुख में आग न देना
जब तक जीया मौत बना था
तन में इसके जोंक भरा था
मुख में इसके खून सना था


जब चिता कुछ विद्रोह करे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


यह चिता विकल है जलने को
बाहों में उसको लेने को
निर्मल चादर में लिपटी है
बह चदन-देह सुलगने को


पर हित में कुछ मिट जए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


अब धू-धू कर तुम जलो चिता
तुम दीपक राग सुना ही दो
कुछ अर्थ नहीं इस जीवन का
अब राख इसे बन जाने दो


जब जगे नैराश्य कहीं तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


इस पल कोमल, उस पल काठी
इस पल जीवन, उस पल माटी
बड़े स्नेह से साथी -संगी
जलती चिता  चढ़ाते माटी


स्नेह -संतृप्त विदा मिले तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


उसके मन के राजे सारे
'वाह,वाह ' वे करने वाले
देख पड़ी उसकी माटी को
रुके न कंधा देने वाले


जब स्वारथ का रंग खुले तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


छिप कर बैठे रहो कन्हैया
अब तुमको कौन पुकारेगा
कोई जटायु आ जाएगा
प्राण न्योछावर कर जाएगा


जब तिनका बने सहारा तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


नहीं चाहिए अर्जुन उसको
वह अब गांडीव उठा लेगी
भीष्म तुम्हारी मां गंगा
अब अपनी लाज बचा लेगी


जब स्वयं-रक्षिता आए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


आंचल शिशु जब ढूंढ रहा हो
ममता तब बेची जाती है
नाव न पहुचाती अब ठांव
दुखिया ही कुछ दे जाती है


दूर कहीं शैशव रोए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


ये दीवारें पूछ रही हैं-
'यह शैशव कब मुसकाएगा
पड़ा जो काठ के पलने में
वह रोएगा, बस रोएगा


मां की छाया छिन जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


अब इस जहरीले मौसम में
शैशव अपना शैशव भूला
कागज की नाव बने कैसे
जूतों को छपकाना भूला


शैशव जब कुछ खो जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


पत्थर के हैं यहां घोंसले
लोहे की हैं यहां खिड़कियां
बिना मिले चंचल शैशव से
डूबी दुख में चलीं तितलियां


जब लगे फूल पर पहरे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


उड़ती पतंग को देख रहा
शैशव लोहे की खिड़की से
मन के अंदर आकाश बना
यह शैशव जीएगा कैसे


जब सांस घुटे शैशव की तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


पानी मिले न, अक्षर उसको
माखन, मिसरी , दूध न पूछो
वाणी उसकी सूख रही है
उसकी कथा-व्यथा न पूछो


जब आंसू भी छीन जाएं तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


वह तंडुल तृण - सा सूख रहा
अगन समाती काया उसकी
तुम क्यों पागल छीन रहे हो
उजियाला उसके जीवन की


यह तृण हरियाली मांगे तो
तुम बादल हो , कुछ बरसो तो


मीरा पी कर विष का प्याला
कुछ और मगन हो जाती है
बाहर आकर माया घट से
अमर गीत वह गा जाती है


जब रूप - अरूप समाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


ऊपर उठ कर लोक लाज से
वह रुन-झुन नाचे बीच गली
मन पागल हो जाए उसका
खिलती जाए वह विकल कली


पिया बावली कुछ गाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


सब वैर भाव, साथी -संगी
नदी किनारे जो छोड़ चले
वह गाए तो यह नभ कांपे
वह छू दे तो पत्थर पिघले


वह मन कबीर हो जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


अपने गीत खोल जो रख दे
बिना मोल के बीच बजरिया
नित लूट मचे उन गीतों की
फिर भी उसकी भरी गगरिया


वह मन अक्षय बन जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


क्रौंच-रुदन पर रच डाली थी
वाल्मीकि ने यह रामायण
अब होते तो वे क्या रचते
करते क्या रावण का गायन


श्री राम नहीं मिल पाएं तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


कलम किसी की, स्याही उनकी
रोटी इनकी, बाहें उनकी
कवि तो चुप है, कविता रोती
सोते-जागे बातें उनकी


पिंजड़े की मैना बोले तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


कविताओं का अर्थ न पूछो
पागल मन कुछ लिख जाता है
जब प्राण विकल हि जाते हैं
जब कांटा मन में चुभता है


बहे भावना के कुछ सुर तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


जो धारा में बह पाता है
पाषाणों से टकराता है
विष पीने वाला ही जग को
अमृत-पान करा पाता है


जब पर दुख कोई पीये तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


जो मझधारों में मुस्काए
वह ऊंचा आलाप लगाए
लहरों पर लहरें बरसाए
वह विपदाओं से टकराए


जो मन-मांझी हो जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


जिसने सोचा मैं ही मैं हूं
उसकी मटकी खाली निकली
वह जो भूल गया अपने को
उसकी ही बाराती निकली


खोकर कोई कुछ पाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


मन गढ़ता ही जाता क्यों है
रूप अनेक पिया के अपने
टिके न यह मन एक रूप में
मन चंचल बस देखे सपने


जब इंद्रधनुष धुल जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


इस नाम कभी, उस नाम कभी
लड़ते देखा मनुज-मनुज को
यह मन नाम अनाम भजे तो
पूजें हम पूरी दुनिया को


जब अनाम का नाम जगे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


अलग-थलग उसकी सत्ता से
है उनकी सत्ता मनमानी
मटकी उनकी कभी न भरती
रोज दुखाती एक कहानी


स्वारथ हावी हो जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


देखा कभी न ऐसा राजा
जब जनमा मांग रहा है
उल्टी टोपी लिए खड़ा है
सेवक सेवा मांग रहा है


उल्टी गंगा कहीं बहे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


बड़े क्रोध से करघा बोला-
"टोपी कपड़ा नहीं बूनना
अब लोग छिपाएं टोपी से
घोर पाप की अपनी रचना


बेचारी टोपी कलपे तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


मेरे ऊपर मत बैठाओ
सत्ता की यह गठरी काली
नहीं जलन आग में उतनी
दुख देती जितना जंजाली


जब काठ क्रोध में बोले तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


करते थे व्यापार कभी जो
व्यापार खरीदा करते हैं
अब अपने खोटे बाटों से
संसार खरीदा करते हैं


जब हाथ जाल बन जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


वह जो सोननगरिया वाला
अमृत कह कर विष को बेचे
मां की ममता, शैशव लूटे
स्वारथ का वह पौधासींचे


भेद लूट का खुल जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


यह भोज खुला है बस उनका
पेट भरा है पूरा उनका
जूठन पर पलते ये भूखे
बात न करता कोई उनका


बस मुंह देखी चले जहां तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


यह वन तुम क्यों छोड़ गये
नूतन वन और बनाने को
रंग नए और तुमने अपनाए
यह पशुता और बढ़ाने को


हो जाए बदरंग जमीं तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


बदल गए शब्दों के अर्थ
साथी-संगी सब बदल गए
ढोंग-दिखाना अब जारी है
सारे प्रेमी बाजार गए


जब ये सिक्के कुछ खनकें तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


साथी-संगी अब जुटें कहां
भाग रही है सारी दुनिया
बैठ किनारे दिल रोता है
रोती यह पिंजड़े की मुनिया


रीता कोई रह जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


जगह नहीं है घर में अपने
टूट गए हैं सारे सपने
अपने ही बेगाने निकले
वे शब्दों के मारें तानें


जब आहत मन कुछ बोले तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


आंगन घर का बदल गया है
तुलसी भी कुछ सुख गयी है
जहर घुला जेब से रिश्तों में
रंग लहू का बदल गया है


विकृतियां जब कुछ उभरें तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


सूरज है, चांद-सितारे भी
दीपक भी घर-घर जलता है
एक किरण की आस लगाए
मेरा जीवन क्यों ढलता है


जब हाथ टटोले दुनिया तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


अपनी मंजिल की ओर कभी
दो कदम अगर मैं चल पाता
जीवन को मिल जाता जीवन
मुट्ठी में खुशियां भर पाता


जब शून्य में भटके मन तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


कितने-कितने चित्र बनाए
उन भांति-भांति के रंगो से
यह मन अपना रंग न पाया
अपने हृदय के रंगों से


मन इकरंगा रह जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


आशा की नैया पर बैठा
हर सांस लड़ा कुछ पाने को
मेरा जीवन हर सांस मिटा
है कुछ भी हाथ न आने को


जब इच्छाएं मिट जाएं तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


बहुत देर से आया हूं मैं
पूजा करने तेरे द्वारे
बिखर गए जब सिक्के सारे
जब मैंने सब पत्ते हारे


टूटा तारा गिरा कहीं तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


पुष्प कहां से लाऊंगा मैं
नहीं पास हैं चंदन, रोली
ये धूप, दीप, अक्षत, पानी
पूरी खाली अपनी थाली


जब लुटा मुसाफिर आए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


इस चौखट पर प्राण कांपते
सांस हांफती, कण-कण रोते
कभी बहुत वाचाल रहा था
अब क्षमा के शब्द न मिलते


विकल प्राण कोई आए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो


अब निरूपाय खड़ा हूं मैं तो
अपनी शरण बुला लो मुझको
करता अश्रु-जल तर्पण तुझको
अपने रूप समा लो मुझको


यह "मैं" जब कुछ मर जाए तो
तुम बादल हो, कुछ बरसो तो

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

हाशिए पर का आदमी


यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो बार बार बिकता है
और बार बार नया मालिक पाता है
पर जिसके लिए
मालिक बदलना
कोई अर्थ नहिं रखता
क्योंकि फ़ंदे बदल जाते हैं
पर गला तो उसी का रह जाता है
बैल हल में जुते
या कि कोल्हु में
बात बराबर है
ओर जो
अपने पैर से
सिर्फ़ दूसरे के लिए चलता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
2
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो विष को अमृत बना सकता है
जो दुख को
सुख को समझ सकता है
जो अपने ऊपर हुई हिंसा को
प्रेम मान सकता है
जो अपनी मृत्यु को
सृजन कह सकता है
लेकिन जो
अपने जीवन को
अपना जीवन नहीं कह सकता
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
3
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो ठंड में कांपते हुए
गर्मी में उबलते हुए, बरसात में भींगते हुए
अपने पसीने की गंध से
कभी उबरता नहीं
और जो
अपनी छाती पर
दिन रात उगाए गए घावों को
फूंक-फूंक कर सुलाता है
स्वयं जागते हुए
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
4
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो बेचारा
मालिक के पशुओं का
चारा काटते - काटते
स्वयं चारा बन जाता है
और जो
अपने राजा के महल के लिए
पत्थर तराशने के बाद
अपना हाथ भी
तराशे जाने के लिए
आगे बढा देता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
5
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

जिसका
मंदिर में प्रवेश
निषेध है
और इसीलिए
मंदिर में प्रवेश पाने वाले
जिसे अधर्मी, अधम और न जाने क्या-क्या कहते हैं
और फिर भी जो
मंदिर के द्वार पर
पूरी श्रद्धा के साथ
भगवान के प्रसाद की
याचना करता है
और जिसे
एक टुकड़ा प्रसाद
तृप्त कर देता है
और जो
बिना कुछ मांगे
स्वर्ग का हकदार बन जाता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
6
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जिसकी मां का सिर
अपनी ही जमीन पर
झुका होता है
और जिसका बाप
लापता होता है
और जो सभ्य समाज की मदद
के बीच
वैसे ही फंसा होता है
जैसे
जाल में
मछली फंसी होती है
मछली तो एक बार फंसती है
और एक ही बार बिकती है
लेकिन जो बार-बार
जाल में फंसाया जाता है
और जो बार-बार बेचा जाता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

-dilip kumar tetarbe

बुधवार, 21 जुलाई 2010

पर गला तो उसी का रह जाता है

हाशिए पर का आदमी(खंड-२)
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो बार बार बिकता है
और बार बार नया मालिक पाता है
पर जिसके लिए मालिक बदलना  
कोई अर्थ नहीं  रखता
क्योंकि फ़ंदे बदल जाते हैं
पर गला तो उसी का रह जाता है
बैल हल में जुते या कि कोल्हू में
बात बराबर है
ओर जो
अपने पैर से
सिर्फ़ दूसरे के लिए चलता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

2
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो विष को अमृत बना सकता है
जो दुख को सुख समझ सकता है
जो अपने ऊपर हुई हिंसा को
प्रेम मान सकता है
जो अपनी मृत्यु को
सृजन कह सकता है
लेकिन जो अपने जीवन को
अपना जीवन नहीं कह सकता
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

3
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो ठंड में कांपते हुए
गर्मी में उबलते हुए
बरसात में भींगते हुए
अपने पसीने की गंध से
कभी उबरता नहीं
और जो
अपनी छाती पर
दिन रात उगाए गए
घावों को
फूंक-फूंक कर सुलाता है
स्वयं जागते हुए
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

4
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो बेचारा
मालिक के पशुओं का
चारा काटते - काटते
स्वयं चारा बन जाता है
और जो अपने राजा के
महल के लिए
पत्थर तराशने के बाद
अपना हाथ भी
तराशे जाने के लिए
आगे बढा देता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

5
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जिसका मंदिर में प्रवेश
निषेध है
और इसीलिए
मंदिर में प्रवेश पाने वाले
जिसे अधर्मी, अधम
और न जाने क्या-क्या कहते हैं
और फिर भी जो
मंदिर के द्वार पर
पूरी श्रद्धा के साथ
भगवान के प्रसाद की
याचना करता है
और जिसे
एक टुकड़ा प्रसाद
तृप्त कर देता है
और जो
बिना कुछ मांगे
स्वर्ग का हकदार बन जाता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

 6
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जिसकी मां का सिर
अपनी ही जमीन पर
झुका होता है
और जिसका बाप
लापता होता है
और जो सभ्य समाज की मदद
के बीच
वैसे ही फंसा होता है
जैसे
जाल में
मछली फंसी होती है
मछली तो एक बार फंसती है
और एक ही बार बिकती है
लेकिन जो बार-बार
जाल में फंसाया जाता है
और जो बार-बार बेचा जाता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है