मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

आपके हों इस साल पौ बारह

                                                        
                 



सलाम दोस्तों दो हजार ग्यारह/


आपके हों इस साल पौ बारह/


मुहब्बत से भरा हो घर औ' बाहर/
घोटाले हों जाएं नौ दो ग्यारह/


मुबारक हो दो हजार ग्यारह/
प्याज हो जाए किलो बारह/


चलो चलें दो हजार ग्यारह/
प्रेम के गीत गाएं ग्यारह/

इकट्ठे हों दोस्त दस बारह/
पकौड़े चलें चाय की चुस्कियां ग्यारह/


सुनहरी हो सुबह दो हजार ग्यारह/
चांदनी हो रातें दो हजार ग्यारह/


गंगा जमना साथ बहें दो हजार ग्यारह/
सलाम -प्रणाम दो हजार ग्यारह/








रविवार, 19 दिसंबर 2010

और पत्थर भी लहू-लुहान हो गया !


वह सड़क का ही एक पत्थर था
मंत्री जी का काफिला
उसे रौंदता हुआ निकल गया
चौक के सिपाही ने
मंत्री जी  को सलाम किया
और पत्थर को कोसा
और उसे अपने जूते से
सड़क के किनारे कर दिया
उसे डर था कि इस पत्थर के कारण
मंत्री जी को कार में हिचकोले लगने के आरोप में
कहीं उसे  नौकरी से न निकाल दिया जाए

कार  के काफिले से रौंदे जाने के कारण
बेचारा पत्थर ऐसा टूटा कि
नुकीला हो गया
फिर सडकों पर बलवाई उतरे
एक बलवाई ने उस पत्थर को हाथ में लिया
और दे मारा एक बेक़सूर के सिर पर
बेक़सूर हमेशा  कि तरह मर गया
और पत्थर भी लहू-लुहान हो गया
पत्थर बेचारा रो पड़ा

किसी जौहरी ने पत्थर को देखा
पत्थर के उदर में 
एक कीमती रत्न था
उसने उस पत्थर को अपनी झोली में डाला
फिर उसने पत्थर को तोड़  कर
उसके उदर से वह रत्न निकाला
उसे तरासा
रत्न में पत्थर की आत्मा थी
वह नग्न हो गई थी
उसे शर्म लग रही थी
लेकिन सभी उसे देखना
और पाना चाहते थे

पहले जौहरी के बेटों में
उस रत्न को ले कर फसाद हुआ
फिर शहर में उस रत्न को पाने के लिए
ख़ूनी खेल शुरू हुआ
धीरे-धीरे सारी दुनिया में
उस रत्न के लिए युद्ध शुरू हो गया

शापित लोगों ने उस रत्न को
शापित कहना शुरू कर दिया!

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

मदद के हाथ जाल की तरह काम कर रहे थे !



उनका हर मोहरा
झूठ की बुनियाद पर खड़ा था
और आदमी
सच के साथ दबा कुचला था
जब कि
वह रंगरेलियां मना रहा था
और आदमी
सिर झुकाए खड़ा था

वह मनमानी कर रहा था
और  उसे  न्याय बता  रहा था
और आदमी
बेक़सूर हो कर भी
स्वयं को जेल में
बन्द कर रहा था

वह खुल कर
मदद कर रहा था
और उसके मदद के हाथ
जाल की तरह काम कर रहे थे
और आदमी चिड़िया बना
जाल में फंस रहा था.........  

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

और पत्थर पिघल गए

वे आंसू   घड़ियाली नहीं थे
वे दिल से बहे
और पलकों को चीर  
गालों से होते हुए
पत्थरों पर बिखर गए
और पत्थर पिघल गए-
ऐसे थे  
वे  नमकीन आंसू!
पर सवाल  हैं
कि आदमी क्यों नहीं पिघला?
कि नेता क्यों मौन रहे?
कि अधिकारी के अधिकार
 क्यों कुंद हो गए?
पंडित, मौलवी और पादरी
और अन्य संत
क्यों आकाश निहारते रह गए?
एक पक्षी जटायु  ने
रावण पर हमला कर दिया
एक क्रोंची ने
चिड़ीमार की करतूत पर 
आंसू बहाए  
और एक दस्यु 
कवि बन गया 
करुणा का शब्द सागर लहराया 
क्या यह सब इतिहास था
जो कभी दुहराया नहीं जाएगा?
क्या यह कहना गलत है
कि इतिहास 
इतिहास को दुहराता है?

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

जो चोर चोर का कर रहा था शोर वह था असली चोर

जो चोर चोर का कर रहा था शोर
और कोई नहीं
वह था असली चोर
कितने पाप करोगे?
देश को तोड़ा
गाँधी को मारा
समाज को बांटा
मस्जिद गिराई
कारगिल में होता रहा घुसपैठ
तुम डूबे रहे
शराब की पाउच में
और  कितने सैनिक हो गए शहीद
लूट का शिकार हुई
शव पेटियों की खरीद
प्रतिरक्षा खरीद में ली
कैमरे के सामने दलाली
किसीने किये सौ धमाके
तुम्हारे पैदा किए उन्माद पर
तो तुमने भी कर दिए कुछ और धमाके
और छिप गए कायर की तरह
हाफ पैंट वाले बाबा की गोद में
प्रश्न के बदले लेते रहे मोटी रकम
और डूबे रहे प्रमोद में
आजादी का किया विरोध
और अब बनते हो राष्ट्रभक्त?
रंग बदलते हो देख कर वक्त
जिस दरख़्त के नीचे तुमको मिली पनाह
उसी दरख्त की जड़ें कुतरते रहे 
झूठ  दर झूठ बोलते रहे बेपनाह
अफवाह  पर अफवाह फैलाते रहे
लाशों पर राजनीति  करते रहे
और  संतों का भगवा पहन कर
उसे बदनाम करते रहे
आवाम को भी दिया धोखा
राम को भी दिया धोखा
कब तक यह सब करते रहोगे
कब तक?

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

नोट वोट का पर्याय है, सत्ता है टकसाल


कुछ दोहे
नोट वोट का पर्याय है, सत्ता है टकसाल
मनचाही कुर्सी मिले चार पुश्त हो   लाल

साधू को भी लूट लिया, चोरों को चकराय
सबकी  काटी जेब है, सिर पर टोप लगाय

लूट गया जो रात में, सुबह बोलता जाय
सारी दुनिया चोर है,    हम तो हैं रघुराय

नेता लेवे      सेवा,        पर सेवक कहलाय
सत्तर चूहे मारकर,       राम धाम को जाय

बोले सो वह       ना करे,    गंगा उलट बहाय
चोर चोर वह शोर कर, माल गड़प कर जाय

सुनने में झूठा लगे, फिर भी सच हो जाय
बैठा जेल के अंदर,       संसद में आ जाय 

वह सबका गीने दाग,      अपने में इतराय
शीश ना देखे आपणा, बस दर्पण चमकाय

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

सच बोलना गुनाह हो गया है, आम आदमी तबाह हो गया है

  *दिलीप तेतरवे             
 पुस्तक मेले में गुजरते हुए मुझको अहसास हुआ कि कविता और शायरी की पुस्तकें बोलने लगीं हैं और कवि- गोष्ठी कर रहीं हैं-आज के हालात  पर पेश है दुष्यंत कुमार की यह फड़कती हुई कविता-तुम/शासन की कुर्सी में बैठे हुए/अपने हाथों में मुझे/ एक ढेले की तरह लिए हुए हो/ और बर्र के छत्तों में फेंक कर मुझे/ मुसकुरा सकते हो/मौक़ा देख कर/ कभी/मेरी पहुंच से दूर जा सकते हो.....सचमुच राजनेता आम आदमी की पहुँच से कितनी-दूर,कितनी- दूर चला गया है...अब तो उस तक सिर्फ नीरा राडिया ही पहुँच बना सकती है....जो अमीरों की दलाली करती है, लेकिन क्या कोई गरीबों की दलाली कर सकता है क्या? नामुमकिन!
            अब आम लोग बेचारे क्या बोलेंगे...फैज़  अहमद फैज़ के कुछ सवाल ही सुन लीजिए- बोल, की लब आजाद हैं तेरे/ बोल, जबां अब तक तेरी है/तेरा सुतवां जिस्म है तेरा/ बोल की जान अब तक तेरी है....निदा फ़ाज़ली साहब तो और गजब ढाने के मूड में हैं, उनको लगता है की खुदा चुप है, इसलिए ही यहाँ बवाल हो रहे हैं- खुद है चुप आस्मां में/ लेकिन/ वो सांप-आदम को जिसके कारण/ खुदा ने जन्नत बदर किया था/ज़मी पे/ ताली बजा रहा है..यहाँ बताने की जरूरत नहीं की सांप-आदम कौन है..ग़ालिब ने आम आदमी की हालत पर बोल ही दिया-कर्ज की पीते हैं मै और समझते हैं कि हाँ/कि रंग लाएगी फाकामस्ती एक दिन.....नाचीज़ ने भी कह दिया-सच बोलना तो बस गुनाह हो गया है/आम आदमी बस काम करते-करते तबाह हो गया है....
          गजानन माधव मुक्ति  बोध की चिंता कालजयी हो रही है-नामंजूर/ उसको ज़िंदगी की शर्म की सी शर्त/नामंजूर/हठ इनकार का सिर तान/खुद/मुख्तार/कोई सोचता उस वक्त-छाए जा रहे हैं सल्तनत पर घने स्याह....बहुत सारे पहरेदार चोरी और हेराफेरी के धंधे में लग गए हैं. चौथा स्तम्भ भी कलंकित हो गया है. 
          बशीर बद्र ने और साफगोई से कह दिया-घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे/बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला....राजनीति में आदमी की तलाश एक असंभव सा काम हो गया है...एक आदमी था मनमोहन, लेकिन अकेला चना तो बेचारा ही होता है...जब पक्ष-विपक्ष के साथ  चौथे स्तम्भ के तीस लोग जुड़ जाएं तो फिर खुदा ही मालिक है, देश का...

रविवार, 5 दिसंबर 2010

कलम हो गई बदनाम/ ठेकेदारों की झंडू बाम !



बोल कलम तेरी कैसे जय बोलूँ ?
कलम पत्रकार की
स्याही ठेकेदार की
स्वार्थ की स्याही
काले धन की स्याही
काली करतूतों की स्याही
सूख  गई पत्रकारिता की स्याही
गिर गया चौथा स्तम्भ भी
बोल कलम तेरी कैसे जय बोलूँ ?

कर गया कोई मोल
तुम्हारी कलम का-
शब्द बिक गए
रपट गढ़ दी गयी
कलम हो गई गुलाम
ठेके की नगरी में
कलम  हो गई बदनाम
ठेकेदारों की झंडू बाम ! 

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

वह जिन्दगी नहीं है श्मशान है.....



जिन्दगी बहुत ही अजीब चीज है
बहुत हिसाब मांगती है
बहुत परीक्षा लेती है
बहुत रुलाती है
बहुत हंसाती है


जिन्दगी  वैसी सड़क जैसी होती है
जो चलने के काबिल नहीं होती
लेकिन मंजिल तक जाने के लिए
बस वही एक सड़क है
सबको उसी सड़क से
गुजरना पड़ता है
हंस के गुजरें या रो के गुजरें

जिन्दगी की सड़क  पर 
सिर्फ गड्ढे ही नहीं होते हैं
नुकीले पत्थर भी होते हैं
अगर जिन्दगी की सड़क पर चलना है
तो तलवो को खून से भीगने पर भी
अपने शरीर का  भार
ढोने लायक बनाना पड़ता है

लेकिन जो 
दूसरों  के तलवे चाटने में
विश्वास रखते हैं
वे बिना एड़ियां  घिसे 
बहुत कुछ पा लेते हैं
जिन्दगी को गुलामी के नाम कर


जिन्दगी एक दिन के लिए
अगर वह गुलाम है तो 
 वह जिन्दगी नहीं है
श्मशान है.............

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

सन्नाटे में दिल बहुत बोलता है


सन्नाटे में दिल बहुत बोलता है
खजाना  यादों का  यूँ  उमड़ता है


लगता है अभी-अभी वो मिले थे
पंख    लगा   के   ये  वक्त उड़ता है

उग आए कांटे जहाँ   फूल खिलते थे
फिर भी इक दीवाना वहां रहता है

इश्क    करता था    वो चांदनी से
अब पत्थरों को बावला चूमता है

मिटने का उसको कोई गम नहीं
नाचीज़  कब्र में भी  जी लेता है