मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

सच बोलना गुनाह हो गया है, आम आदमी तबाह हो गया है

  *दिलीप तेतरवे             
 पुस्तक मेले में गुजरते हुए मुझको अहसास हुआ कि कविता और शायरी की पुस्तकें बोलने लगीं हैं और कवि- गोष्ठी कर रहीं हैं-आज के हालात  पर पेश है दुष्यंत कुमार की यह फड़कती हुई कविता-तुम/शासन की कुर्सी में बैठे हुए/अपने हाथों में मुझे/ एक ढेले की तरह लिए हुए हो/ और बर्र के छत्तों में फेंक कर मुझे/ मुसकुरा सकते हो/मौक़ा देख कर/ कभी/मेरी पहुंच से दूर जा सकते हो.....सचमुच राजनेता आम आदमी की पहुँच से कितनी-दूर,कितनी- दूर चला गया है...अब तो उस तक सिर्फ नीरा राडिया ही पहुँच बना सकती है....जो अमीरों की दलाली करती है, लेकिन क्या कोई गरीबों की दलाली कर सकता है क्या? नामुमकिन!
            अब आम लोग बेचारे क्या बोलेंगे...फैज़  अहमद फैज़ के कुछ सवाल ही सुन लीजिए- बोल, की लब आजाद हैं तेरे/ बोल, जबां अब तक तेरी है/तेरा सुतवां जिस्म है तेरा/ बोल की जान अब तक तेरी है....निदा फ़ाज़ली साहब तो और गजब ढाने के मूड में हैं, उनको लगता है की खुदा चुप है, इसलिए ही यहाँ बवाल हो रहे हैं- खुद है चुप आस्मां में/ लेकिन/ वो सांप-आदम को जिसके कारण/ खुदा ने जन्नत बदर किया था/ज़मी पे/ ताली बजा रहा है..यहाँ बताने की जरूरत नहीं की सांप-आदम कौन है..ग़ालिब ने आम आदमी की हालत पर बोल ही दिया-कर्ज की पीते हैं मै और समझते हैं कि हाँ/कि रंग लाएगी फाकामस्ती एक दिन.....नाचीज़ ने भी कह दिया-सच बोलना तो बस गुनाह हो गया है/आम आदमी बस काम करते-करते तबाह हो गया है....
          गजानन माधव मुक्ति  बोध की चिंता कालजयी हो रही है-नामंजूर/ उसको ज़िंदगी की शर्म की सी शर्त/नामंजूर/हठ इनकार का सिर तान/खुद/मुख्तार/कोई सोचता उस वक्त-छाए जा रहे हैं सल्तनत पर घने स्याह....बहुत सारे पहरेदार चोरी और हेराफेरी के धंधे में लग गए हैं. चौथा स्तम्भ भी कलंकित हो गया है. 
          बशीर बद्र ने और साफगोई से कह दिया-घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे/बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला....राजनीति में आदमी की तलाश एक असंभव सा काम हो गया है...एक आदमी था मनमोहन, लेकिन अकेला चना तो बेचारा ही होता है...जब पक्ष-विपक्ष के साथ  चौथे स्तम्भ के तीस लोग जुड़ जाएं तो फिर खुदा ही मालिक है, देश का...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें