सोमवार, 13 दिसंबर 2010

और पत्थर पिघल गए

वे आंसू   घड़ियाली नहीं थे
वे दिल से बहे
और पलकों को चीर  
गालों से होते हुए
पत्थरों पर बिखर गए
और पत्थर पिघल गए-
ऐसे थे  
वे  नमकीन आंसू!
पर सवाल  हैं
कि आदमी क्यों नहीं पिघला?
कि नेता क्यों मौन रहे?
कि अधिकारी के अधिकार
 क्यों कुंद हो गए?
पंडित, मौलवी और पादरी
और अन्य संत
क्यों आकाश निहारते रह गए?
एक पक्षी जटायु  ने
रावण पर हमला कर दिया
एक क्रोंची ने
चिड़ीमार की करतूत पर 
आंसू बहाए  
और एक दस्यु 
कवि बन गया 
करुणा का शब्द सागर लहराया 
क्या यह सब इतिहास था
जो कभी दुहराया नहीं जाएगा?
क्या यह कहना गलत है
कि इतिहास 
इतिहास को दुहराता है?

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