बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

बन के बावला

बन के बावला ता उम्र  ढूंढता  रहा मैं मुहब्बत अपनी
जंगलों पहाड़ों गलियों में देती रही दगा मुहब्बत अपनी

सिसकती रोती  रही वहीँ पे तन्हा तनहा मुहब्बत अपनी
कभी न तो सोचा न किया न देखा ख्याल हमने अपने दिल का

दिल का ख्याल दिल ही रखना  जाने
इश्क का ख्याल दिल ही रखना जाने


यूं  रुलाने ख्वाब में   क्यूं  कर  आईयेगा
ख्वाब न हो जिस नींद में  वो दे जाईयेगा
जगाया  बहुत आपने पलकें झुकी जा रहीं  
 जो टूटे न नींद वो  मुझे दे जाईयेगा


है तुमको आदत याद छिपाने की 
दिल से दूर जाने औ' सताने की 
करती ही रहना  तुम ये खेल मुझसे
तमन्ना नहीं कुछ  खोने या पाने की

समंदर को अपनी गहराई औ' लहरों पे था गरूर
डूब कर ले आया मोती  मुहब्बत के मेरे हुजूर


रोज  नए ताने  मुझ पे मारे  ये  जमाना
मुझको ये  गम दे दे के बनाते हैं   दीवाना
तुम क्या रूठे सनम तितलियाँ भी रूठ गयीं
मुहब्बत के मारों को मिले न  कोई ठिकाना
मैं कैसे भुला दूं  वो मेरी बाँहों का  चेहरा
गुलाबी होठों का वो फड़कना  मुस्कुराना
तेरा चुपके  से आना बालों को सहलाना 
आतें हैं याद   मुझको   वो किस्से सारे पुराने
दोपहर में छत की धूप तब लगती थी चांदनी
देखो अब इस चांदनी का   सुलग-सुलग जाना
दूब सी कोमल औ' झरने सी चंचल  वो काया
यूं वीरान हुई जाती है तेरे बिन ये जिन्दगी
जैसे हुए ठूँठ पेड़ों से   चिड़ियों का उड़  जाना


हर मायूसी के बाद इक हंसी सुबह तो होगी
हर गम के बाद इक हंसी मुस्कराहट  तो होगी
ख़ुशी औ' गम इस जिंदगी  के हैं दो हंसी किनारे
कदम तो बढ़ाओ कहीं पे हंसी जिंदगी तो होगी

जीवन ही तो विस्मय है विस्मय ही तो जीवन है

सपना टूटे या जी उठे विस्मित करता वह जीवन है
हर क्षण  प्रति पल  जीवन में कोई रचता  विस्मय है
प्रति पल बदले  जीवन यह तो अद्भुत नील गगन  है


रूठ गई     है राधा      मेरी  ना खेलेगी रंग  
सूखी होली में कैसे भीगेगा तन मन अंग
नाव चलेगी क्या चढ़ के इस बालू के तरंग
मिले न पिस्ता बादाम   अब क्या घोंटेंगे भंग
महंगी की मुट्ठी में है सबका अब दिल तंग
आसमान में कट गया धागा चिद्दी हुई पतंग
न मन बसिया न मन रसिया कहाँ छिपे अनंग
भूले कान्हा बाँसुरिया कौन बजाये मृदंग
बाजे न झांझ मजीरा टूटे सपने उड़ी उमंग
आओ चलें फकीरी में हम सब मस्त मलंग

गांव का गांव समन्दर में घुलता देखा

अपने हाथ में दिल को पिघलता देखा
अlपनी सांसों को    मैंने सिमटता देखा
हजारों हजार ख्वाबों  को बिखरता देखा

इश्क है  करना कोई आसां   तो   नहीं
इश्क है कहना कोई   आसां तो  नहीं
दिलेरों का काम दिल का लेना   देना
इश्क है  बढ़ना कोई आसां तो नहीं
कैसे जानूँ मैं इन  चूड़ियों का मिज़ाज

इश्क है जगाना कोई आसां तो नहीं
कांपते होठों से  और  तड़पते   दिल से
इश्क  है सुनाना कोई आसां   तो नहीं
उस अनजान से    मुझको  है  पहचान
इश्क है जताना   कोई आसां तो  नहीं


 


सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

हैप्पी होलियम
































हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम

हैप्पी ईदम/बैसाखियम/
हैप्पी सरहुलम/ क्रिस्मसम
हैप्पी हिंदी डेयम
हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम
खेलियम   अकबरमं   टोडरमलम
तुलसी रहीम मित्रं
उछालीयम  अबीरं गुलालं
हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम
हैप्पी मुन्नियम/हैप्पी शीलायम
हैप्पी दुःख हरणं  झंडू बामं
मलयं-मलयं पुटठं 
हैप्पी  नृत्यं
झूमयम  राग  खिचड़ीयम  
कमर  तोड़यम
हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम
साठं शरीरं दिल बल्लियम
उच्च रक्त चाप भूलियम
सखी संगमं झूला झूलीयम
चीखम  चिल्लायम  
उल्लासं पलाशं हैप्पियम
हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम
हैप्पी प्याजम/हैप्पी मिर्चियम 
हैप्पी  मुर्ग  मुसल्लं
हैप्पी डायन महंगायीयं
चुप्पी मनमोहनं
हैप्पी   मनमोहनं
दाल लापतम/चीनी ना दिखं
दूध के पीबतं
हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम

जिन्ना-राडिया  प्रियं  लालकृष्णं
सोनिया मित्रं
मध्ये प्रेम-पत्र आदानं-प्रदानं  
काला धनं मध्ये एक विचारम 
न इनकी जेबम
न उनके कूचम
काला धनं काला धनं
परम सुन्दरम/परम सुन्दरम
 हैप्पी होलियम हैप्पी होलियम 






 
  
  















































  
    

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

          




            हम उस भारत की पूजा करते   हैं
जहाँ  बहती   समभाव की वेद-गंगा
जहाँ फूटी  थी तांडव   से शब्द-गंगा

          हम उस भारत की पूजा करते   हैं
जहाँ राम ने खाए  जूठे   बेर पवित्र
जहाँ रत्नाकर बन जाते  विश्वामित्र
तुलसी  और रहीम   रहे  जहाँ  मित्र 
बसे ह्रदयमें जिस धरती का चित्र
         हम उस भारत की पूजा करते   हैं

  

जहाँ कबीर ने चादर सच की तानी
जहाँ गूंजी    गुरु गोविन्द की वाणी

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

लड़ सकता हूँ तूफानों से 
रुकी हवा से क्या  लड़ना
हरा सकता हूँ लहरों को 
ठहरे पानी से क्या लड़ना
चीर सकता हूँ बादलों को
सूने नभ  से क्या लड़ना
गिरा  सकता हूँ  पर्वतों को
इस रेत से क्या लड़ना














































मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

मेरी गलियां


थक गया हूँ चलते चलते साँसें उखड़ गयीं
मेरी गलियां  सपनों की यूं ही  की उजड़ गयीं 

हरे भरे पेड़ों के पत्ते झर झर कर झर गए
सारी तस्वीरें मंदिर   की यूं ही बिखर  गयीं

जिन पुरानी  यादों  में मेरा मन  रमता था  
उन यादों   पर उदासियाँ    यूं ही पसर गयीं

पड़ने लगा है पीला जीवन का हर इक पन्ना  
हृदय    की सारी इच्छाएँ यूं  ही ठिठुर  गयीं

है तो राह वही  पर  उसने   दिशा बदल ली 
दो प्यारी-प्यारी  चिड़ियाँ यूं ही बिछुड़ गयीं 

कलम कांप रही है पन्ने फड़फड़ा रहे हैं 
विराम के पूर्व पंक्तियाँ यूं ही सिहर गयीं







   

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

क्यों निकला आह से गान?



क्यों निकली कंठ से आह?
क्यों निकला आह से गान?
चलो पूछते हैं,
वाल्मीकि से
"मैं था क्रूर दस्यु
दया और संवेदना
मेरे पेशे में वर्जित थीं
लेकिन, एक  दिन कुछा ऐसा घटा-
तमसा नदी के तट पर
मैं जा रहा था
कर रही थी क्रौंची करुण विलाप
मृत क्रौंच को देख
उसे मारने वाले व्याध पर 
वह नन्हीं  सी जान क्रौंची
बीच-बीच में
हमला भी कर रही थी
पिघल गया मेरे अंदर का दस्यु
और मैं बोल पड़ा अनुष्टुप छंद में-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: शमा: 
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधि: काममोहितम...
फिर मेरी इसी आह से निकला गान..."
चलो पूछते हैं बुद्ध से
क्यों निकला आह से गान?
"जब तक मैं था राजमहल में
अछूता था मैं दुःख से
लेकिन,  एक दिन जब 
निकला राजमहल से बाहर
तो दुःख ही दुःख देखा
और मैं सिद्धार्थ से बुद्ध बन गया
और  हर आह के लिए मेरे मुख से
दया, क्षमा, करुणा की फूट पड़ी धारा
और राजमहल को त्याग मैं
पहुच गया दीन-दुखियों के बीच
तलाशने छोटे-छोटे सुख
दुखों के बीच जन्म लेने वाले सुख..."
क्यों निकली कंठ से आह?  
क्यों निकला आह से गान?