मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

मेरी गलियां


थक गया हूँ चलते चलते साँसें उखड़ गयीं
मेरी गलियां  सपनों की यूं ही  की उजड़ गयीं 

हरे भरे पेड़ों के पत्ते झर झर कर झर गए
सारी तस्वीरें मंदिर   की यूं ही बिखर  गयीं

जिन पुरानी  यादों  में मेरा मन  रमता था  
उन यादों   पर उदासियाँ    यूं ही पसर गयीं

पड़ने लगा है पीला जीवन का हर इक पन्ना  
हृदय    की सारी इच्छाएँ यूं  ही ठिठुर  गयीं

है तो राह वही  पर  उसने   दिशा बदल ली 
दो प्यारी-प्यारी  चिड़ियाँ यूं ही बिछुड़ गयीं 

कलम कांप रही है पन्ने फड़फड़ा रहे हैं 
विराम के पूर्व पंक्तियाँ यूं ही सिहर गयीं







   

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