बुधवार, 21 जुलाई 2010

पर गला तो उसी का रह जाता है

हाशिए पर का आदमी(खंड-२)
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो बार बार बिकता है
और बार बार नया मालिक पाता है
पर जिसके लिए मालिक बदलना  
कोई अर्थ नहीं  रखता
क्योंकि फ़ंदे बदल जाते हैं
पर गला तो उसी का रह जाता है
बैल हल में जुते या कि कोल्हू में
बात बराबर है
ओर जो
अपने पैर से
सिर्फ़ दूसरे के लिए चलता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

2
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो विष को अमृत बना सकता है
जो दुख को सुख समझ सकता है
जो अपने ऊपर हुई हिंसा को
प्रेम मान सकता है
जो अपनी मृत्यु को
सृजन कह सकता है
लेकिन जो अपने जीवन को
अपना जीवन नहीं कह सकता
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

3
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो ठंड में कांपते हुए
गर्मी में उबलते हुए
बरसात में भींगते हुए
अपने पसीने की गंध से
कभी उबरता नहीं
और जो
अपनी छाती पर
दिन रात उगाए गए
घावों को
फूंक-फूंक कर सुलाता है
स्वयं जागते हुए
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

4
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जो बेचारा
मालिक के पशुओं का
चारा काटते - काटते
स्वयं चारा बन जाता है
और जो अपने राजा के
महल के लिए
पत्थर तराशने के बाद
अपना हाथ भी
तराशे जाने के लिए
आगे बढा देता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

5
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जिसका मंदिर में प्रवेश
निषेध है
और इसीलिए
मंदिर में प्रवेश पाने वाले
जिसे अधर्मी, अधम
और न जाने क्या-क्या कहते हैं
और फिर भी जो
मंदिर के द्वार पर
पूरी श्रद्धा के साथ
भगवान के प्रसाद की
याचना करता है
और जिसे
एक टुकड़ा प्रसाद
तृप्त कर देता है
और जो
बिना कुछ मांगे
स्वर्ग का हकदार बन जाता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

 6
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है
जिसकी मां का सिर
अपनी ही जमीन पर
झुका होता है
और जिसका बाप
लापता होता है
और जो सभ्य समाज की मदद
के बीच
वैसे ही फंसा होता है
जैसे
जाल में
मछली फंसी होती है
मछली तो एक बार फंसती है
और एक ही बार बिकती है
लेकिन जो बार-बार
जाल में फंसाया जाता है
और जो बार-बार बेचा जाता है
यह हाशिए पर के उसी आदमी की कविता है

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