गज़ल -खंड-२
आदमी ही था वो शायद कभी
इश्क करता था वो शायद कभी
चेहरा उसका उदासी का दरिया
हंसता भी था वो शायद कभी
अब ख्वाब ही उसका डेरा बना
हकीकत में था वो शायद कभी
सूखे होंठ उसके क्यों कांपा करें
गज़ल कहता था वो शायद कभी
अपनी जां पर वो जां दे गया
मर न पायेगा वो शायद कभी
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इश्क इश्क इश्क और कुछ भी नहीं
दिल देखता है ये ऑंखें नहीं
किसी और के लिए तुम आओगे-जाओगे
जो इक बार दिल में आये तुम गए ही नहीं
दुनिया तो भूल जाती है अपनी ही दुनिया
मैं तेरे वजूद में कहीं और नहीं
मिटते हैं वो अपने लिए खुदकुशी करते हैं
मरे मुहब्बत में वो कभी मरते ही नहीं
आहें भरें राह ताकें ये आशिक यहाँ
लिखूं गज़ल तेरे नाम और कुछ भी नहीं
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