इंसानीयत पर हैवानियत का साया
सच पे है क्यों आज झूठ का साया
सच पे है क्यों आज झूठ का साया
क्यों ये नाते तिजारत हुए जा रहे
बागों पे है क्यों कातिलों का साया
डरी हैं कलियाँ जो ये खिलती नहीं
क्यों जिन्दगी पे है मौत का साया
खेतों पे पसरी है बारूदी गंध
चौपालों पे क्यों है चुप्पी का साया
ये इंसां कर गया इतनी तरक्की
हर दिल के ऊपर लोहे का साया
दोस्त बिना जिगर के आ रहे नज़र
कहाँ कहा तक ये नफरत का साया
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