रविवार, 27 मार्च 2011


इंसानीयत पर हैवानियत का साया


सच पे है क्यों आज झूठ का साया

क्यों ये नाते  तिजारत   हुए जा रहे
बागों पे है क्यों कातिलों का साया

डरी  हैं कलियाँ जो ये  खिलती नहीं
क्यों जिन्दगी पे  है मौत का  साया 

खेतों     पे    पसरी  है    बारूदी गंध 
चौपालों पे   क्यों है   चुप्पी   का साया

ये इंसां कर   गया   इतनी  तरक्की 
हर  दिल के ऊपर लोहे   का साया 

दोस्त बिना जिगर के आ रहे  नज़र
कहाँ कहा तक ये  नफरत का साया





  






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