मंगलवार, 4 जनवरी 2011

दूसरों की गली में मेरा फेरा हो गया था



नसीब ढीला दिल कतरा कतरा हो गया था 
नाकामयाबी    का  जो   खतरा   हो   गया   था

अपने ही    नसीब में   क्यों   काली रातें थीं
सबका ही नसीब क्यों सुनहरा हो गया था

शायद   मेरा   यही   सोचते   रहना ही कहीं
मेरी जिन्दगी का इक  दायरा हो गया था

पास अपने खुदा ने जो बख्शा  देखा नहीं 
दूसरों की   गली में मेरा फेरा हो गया था 

झोंपड़ी    से  उस   महल  को देखते  -  देखते
क्या मैं बस सपनों का चितेरा हो गया था

महल की रोशनी देखी ईंटो के आँसु नहीं
शायद मेरा मन ही अन्धेरा हो गया था

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