शनिवार, 22 जनवरी 2011

ग़ज़ल न जाने कहाँ खो गई







तू चांदनी सी कोमल नदिया सी चंचल
तू यादों की धारा में सुवासित कँवल
तितलियों के पीछे वो तिरते तेरे कदम
वो भी क्या हसीं दिन थे ओ मेरे सनम
यादों में वो किलकारियां अब हैं खनकतीं
यादों की वो डोरियाँ क्यों कर हैं यूं उलझतीं
इस दुनिया से बिलकुल अलग वो दुनिया
कहाँ खो गई सनम बचपन की वो दुनिया
अब तो राहों में हैं बिछी काँटों की डलियाँ
हाथ बने जाल क्यों यूं मसलते हैं कलियाँ
गहरे पानी में छिपती आज क्यों मछलियाँ
खेलने से डरती हैं हमसे सारी तितलियाँ
वो प्रेमी कपोतों की जोड़ी कहाँ गुम हो गयी
मुहब्बत की वो ग़ज़ल न जाने कहाँ खो गई







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