गुरुवार, 27 जनवरी 2011

दगा दे गई




फर्क कुछ लगता नहीं जिन्दगी और मौत में
जिन्दगी तो जिन्दगी मुझे मौत भी दगा दे गई

बार बार  करवटें बदलीं कबाबे सींक  की तरह
जलने का गम नहीं पर जलन भी दगा दे गई

हर दरवाजे सिर झुका  मौत की मैंने  दुआ मांगी
दुआएं क्या करतीं जो  किस्मत ही दगा दे गई

वफ़ा की थोड़ी  उम्मीद की  अपनी मुहब्बत से
मुहब्बत तो मुहब्बत दुश्मनी भी दगा दे गई

बेपरवाह खेलते रहे हम   जुआ बड़ी ईमानदारी से
हाथ में थी इक्कों की तिकड़ी  वह भी दगा दे गई







कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें