सोमवार, 9 मई 2011





पहले उनसे कुछ कुछ डरता था
कुछ सहमा सहमा रहता था
पर घुलने मिलने का उनसे 
मेरा मन भी करता था
कभी माँ के माध्यम से
बातें उनसे  करता था 
पर मन  मेरा नहीं भरता था
कुछ बड़ा हुआ तो 
लगा मैं उनको पढने 
और उन्हें समझने
वे तो बड़े सहज थे
मैं ही मूरख उनसे डरता था
और धीरे धीरे
रंग में उनके मैं रंग गया
उनकी बातों में रम गया
माँ भी लगी थी कुछ कुछ जलने
लगी थी मुझको कहने--
"बाप का बेटा
बे पेंदी का लोटा"
और फिर वह हंसती
और मेरे गाल पर
प्यार की चपत लगाती
और वे कहते--
"बेटा तो हरदम  करता है
रोशन माँ का नाम
और इस निखट्टू के लिए
क्यों करती हो
मुझको बदनाम."
बड़ी ही मीठी यादें
जो अब भी मुझको
ले जाती हैं बचपन में
सहा सुलभ बपन में......


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